पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/९

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भाव भूल गया और ऊपर ही टँग रहीं परन्तु लज्जा ने झट आकर स्त्री के नैन कपाट को बन्द कर दिया और उसने अपना सिर झुका लिया। जब सहचरी ने अपने वाक्य का उत्तर न पाया तो पथिक के मुख की और देखने लगी और उनके गुप्त व्यवहार को समझ कर उस नवीना से बोली, “क्योंं ! महादेव के मन्दिरही में तूने प्रेमपाश फैलाया ?”

नवीना ने सहचरी से उसकी उङ्गली दबाकर धीरे से कहा ‘चल बक नहीं।’ चतुर सहचरी ने अपने मन में अनुमान किया कि इन लक्षणों से ज्ञात होता है कि आज यह लड़की इस परम सुन्दर युवा पुरुष को देख मदन बाणबिद्ध हुई और चाहे कुछ न हो पर कुछ दिन पर्य्यन्त इसको शोच अवश्य होगा और सब सुख क्लेशकर जान पड़ेगा अतएव इसका उपाय अभी से करना उचित है। पर अब क्या करूं! यदि किसी प्रकार से इस पुरुष को यहां से टालूं तो अच्छा हो। यह सोच बोली कि महाशय स्त्री की जाति ऐसी है कि उसको वायु से भी कलंक लगता है और आज इस आंधी से बचना अति कठिन है, अब पानी बन्द हो गया है धीरे धीरे घर चलना चाहिये।

युवा ने उत्तर दिया कि यदि अकेली इतनी रात को तुम पैदल जाओगी तो अच्छा नहीं, चलो मैं तुमको पहुंचा आऊं, अब आकाश निर्म्मल होगया, मैं अब तक अपने स्थान को चला जाता परन्तु मुझको तुम्हारी रूपराशि सखी का अकेली जाना अच्छा नहीं दिखता, इस कारण अभी तक यहां ठहरा हूँ। कामिनी ने कहा कि आपने हमारे ऊपर बड़ी दया की और कृतघ्नता के भय से हमलोग और कुछ आप से नहीं कह सकते। महाशय स्त्रियों की दुर्दशा मैं आपके