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पटना

मपुर,पुष्पपुर और पाटलीपुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ। यही नगर बढ़ता बढ़ता मगध साम्राज्य की राजधानी हुआ।

सम्राट-चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलीपुत्र को अपने विशाल साम्राज्य की राजधानी बनाया। उसी के समय में यूनानी राजदूत मेगास्थनीज भारत में आया। वह कई वर्ष पाटलीपुत्र में रहा। पाटलीपुत्र के विषय में उसने जो कुछ लिखा है उससे विदित होता है कि पाटलीपुत्र उस समय सोन और गङ्गा के सङ्गम पर बसा हुआ था। वह कोई साढ़े चार कोस लम्बा और पौन कोस चौड़ा था। उसकी चहारदीवारी लकड़ी की थी, जिसमें ६४ फाटक और ५७० बुर्जे थीं। चहारदीवारी की चारों ओर एक गहरी और चौड़ी खाई थी, जिसमें सोन-नदी का जल भरा रहता था। राजमहल लकड़ी का बना हुआ था । वह अन्य देशों के राज-प्रासादों से कहीं बढ़ कर सुन्दर था। उसके स्तम्भों पर सुनहली चित्रकारी थी। राजमहल के चारों ओर बड़ा भारी बाग था, जिसमें नाना प्रकारके सुन्दर सुन्दर वृक्ष थे। उसमें कई जलाशय भी थे, जिनमें मछलियां क्रीड़ा किया करती थी। नगर के प्रबन्ध का भार एक राज-सभा के ऊपर निहित था,जो सम्राट् की ओर से नियत थी। इस राजसभा के तीस सदस्य थे,जिन्हें पांच पांच के दल में विभक्त कर के छः स्वतन्त्र उपसभायें बनी थीं। यही उपसभायें नगर के भिन्न भिन्न विभागों का कार्य देखती थीं। पहली उपसभा नगर की शिल्पकला की रक्षा करती थी। दूसरी का यह काम था कि वह नगर में आये हुए विदेशियों को किसी प्रकार का कष्ट न होने दे। तीसरी इस बात का हिसाब रखती