जातियां आ आकर यहां बस गई। चौथी शताब्दी के आरम्भ में गुप्त-वंश का उदय हुआ। ३२६ ईस्वी में समुद्रगुप्त राजा हुआ। अपने बाहुबल से समुद्रगुप्त ने एक बार फिर भारतीय साम्राज्य की नींव डाली। उसका साम्राज्य हुगलो से चम्बल तक और हिमालय से नर्मदा तक फैला । आसाम और हिमालय की तराई तक के नरेशों ने उसकी अधीनता स्वीकार की। गुप्त वंश के इस अभ्यु- त्थान के साथ पाटलीपुत्र के गुप्त भाग्य ने भी पलटा खाया। उसे फिर एक बार एक विशाल साम्राज्य को राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
छठी शताब्दी के अन्त में गुप्तवंश का भी नाश हो गया । मध्य एशिया के श्वेत हूणों का वह शिकार हो गया। पाटलीपुत्र का पतन भी तभी से आरम्भ हो गया। पांचवी शताब्दी के आरम्भ में फाहियान नाम का एक चीनी यात्री भारत में आया था। उस समय पाटलीपुत्र मगध-प्रदेश की राजधानी था। वह पाटलीपुत्र में कोई तीन वर्ष रहा। महाराज अशोक के बनवाये हुए छः सात सौ वर्ष के पुराने टूटे फूटे राजमहल को देखकर फाहियान को बड़ा दुःख हुआ। इस विषय में उसने अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा है कि अशोक ने इस महल को देवताओं से अवश्य बनवाया होगा। इसकी ऊँची ऊँची दीवारें,भव्य द्वार और चौखटें बनाना मनुष्य का काम नहीं। राजमहल के पास ही दो बौद्ध संघाराम थे, जिनमें छः सात सौ साधु रहते थे। ये साधु अपनी विद्वत्ता के लिए प्रसिद्ध थे। दूर दूर से लोग अपनी धर्म-पिपासा की तृप्ति के लिए इनके पास आते थे। प्रसिद्ध