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ग्वालियर


उस पर पत्थर ही के दो आदमी हौदे में सवार थे;हाथी की मूर्ति बहुत ही अच्छी बनी थी। बाबर और अबुल्फ़ज्ल ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है।

बीच में ग्वालियर फिर स्वतन्त्र हो गया; इसलिए बाबर ने एक बहुत बड़ी फ़ौज भेज कर उसे पुनर्वार जीता। जब शेरशाह का प्रभुत्व बढ़ा तब, १५४२ ईसवी में, ग्वालियर के मुसल्मान-गवर्नर अबुल् क़ासिम ने उसे शेरशाह को दे दिया। विक्रमादित्य के बेटे ने बहुत चाहा कि वह मुसल्मानों से ग्वालियर छीन ले। बड़ी वीरता से उसने ग्वालियर पर धावा किया। कई दिनों तक लड़ाई हुई। पर उसकी हार हुई और वह चित्तौर को भाग गया। १७६१ में गोहद के जाट राना भीमसिंह ने ग्वालियर को मुसल्मानों की डाढ़ से निकाला। कुछ काल में मराठों ने उसे छीन लिया। १७७९ में मेजर पोफम ने मराठों को वहां से निकाल कर उसे फिर गोहद के राना को दे दिया। १७८४ में महादजी सेन्धिया ने फिर उसे अपने कब्ज़े में कर लिया और १८०३ ईसवी में जनरल ह्वाइट ने फिर उसे छीना। पर १८०५ में अंग्रेजों ने उसे पुनर्वार मराठों ही के अधिकार में जाने दिया। १८४४ में, महाराजपुर और पनिहर की लड़ाइयों के बाद, फिर ग्वालियर पर अंगरेज़ों का दखल हो गया। इस तरह इस प्राचीन नगर की अनेक बार छीन छान हुई। उसके छीनने वालों में अनेक ऐसे होंगे जिनका नाम तक इस समय कोई नहीं जानता; नाम-शेषता भी जिनकी शेष नहीं रह गई। पर ग्वालियर अभी तक बना है; उसका किला भी यथास्थित है।