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ग्वालियर



क़िले में प्रवेश करने का जो मार्ग उत्तर-पूर्व की तरफ़ है उसमें ६ फाटक हैं। पहले का नाम आलमगीरी फाटक है। औरङ्गजेब के वक्त में ग्वालियर के मुसल्मान-गवर्नर ने उसे १६६० ईसवी में बनवाया था। यह फाटक सादा है। उसके भीतर एक बड़ा कमरा है, जहां मुसलमानी न्यायाधीश बैठ कर न्याय करते थे। इसी लिए उसका नाम कचहरी है।

दूसरे फाटक का नाम बादलगढ़ है। राजा मानसिंह के चचा का नाम बादलसिंह था। उन्हीके नाम पर इसका नाम करण हुआ है। उसके बाहर एक हिंडोला पड़ा रहता था इससे लोग इसे हिंडोलाफाटक भी कहते हैं। यह हिन्दू नमूने का फाटक है; और अच्छा बना है। यहांपर एक लोहे की चद्दर है। उसपर एक लेख खुदा है। उसमें लिखा है कि ग्वालियर के गवर्नर सैयद आलम ने १६४८ ईसवी में उसकी मरम्मत कराई।

यहांपर, पहाड़ी के नीचे, दाहनी तरफ़, मूजरी-महल नामका सुन्दर राज-प्रासाद है। राजा मानसिंह ने उसे अपनी प्यारी रानी मूजरी के लिए बनवाया था। वह ३०० फुट लम्बा और २३७ फुट चौड़ा है। वह दो मंजिला है। वह पत्थर काटकर बनाया गया है। इस समय वह उजाड़ पड़ा है।

तीसरे फाटक का नाम भैरव-दरवाज़ा है। भैरवसिंह नाम का एक कछवाहा राजा यहां हो गया है। उसीके नाम से यह फाटक प्रसिद्ध है। इस पर भी एक लेख है। वह १४८५ ईसवी का है। उसके एक ही वर्ष बाद प्रसिद्ध राजा मानसिंह ग्वालियर की गद्दी पर बैठे थे।