थी। उनमें, सब मिला कर, १०,००० पुजारी थे। लोग प्रायः महादेव के उपासक थे। ख़ास बनारस में २० देव-मन्दिर थे। महेश्वर की एक प्रतिमा १०० फुट ऊँची थी! वह ताँबे की थी। वह इतनी अच्छी बनी थी कि जान पड़ता था कि वह सजीव है।
शहर के उत्तर-पूर्व-दिशा में एक स्तूप था। उसके सामने पत्थर का एक स्तम्भ था। वह स्फटिक के समान चमकता था। वरुणा नदी से दो मील के फासले पर "मृग-दाव" का प्रसिद्ध संघाराम था। उसके ८ भाग थे। वह कई मंज़िला था। उसके हाते में २०० फुट ऊँचा एक विहार था। उसकी छत के ऊपर एक आम (फल) सोने का बना हुआ था। विहार में पूरे क़द की एक बुध की मूर्ति थी। उसी जगह शाक्यमुनि ने अपने धर्मोपदेश रूपी चक्र को सब से पहले गति दी थी।
मध्यकालीन बनारस
अनेक कारणों से बौद्ध मत का धीरे धीरे ह्रास होता गया। बौद्धों में तान्त्रिक-सम्प्रदाय की शक्ति जैसे जैसे बढ़ती गई, वैसे ही वैसे उनकी नैतिक शक्ति क्षीण होती गई। इस अवस्था में कुमारिल-स्वामी और शङ्कराचार्य आदि हिन्दू-आचार्य्यों के आक्रमण से बौद्ध धर्म के पैर इस देश से उखड़ गये; उनके "बिहार" बन्द हो गये; उनके "संघाराम" उजड़ गये; उनके अनुयायी यहां से भाग खड़े हुए। दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में शायद एक भी बौद्ध बनारस में न रह गया। सारनाथ के आस पास की बौद्ध बस्ती जला दी गई। बौद्धों के पूजा-