यात्रियों को मिलते हैं। जैनुद्दीन साहब की मसजिद भी, रौज़े में, देखने की चीज़ है।
औरंगज़ेब और आज़मशाह के मकबरे के सामने आसफजाह और उसकी बेगम की कों हैं। परन्तु इन दोनों से अधिक प्रसिद्ध और दर्शनीय ख्वाजा बुरहानुद्दीन अवलिया की कम है। १३४४ ईसवी में उनकी मृत्यु यहांपर हुई। १४०० चलों को लेकर उत्तरी हिन्दुस्तान से ये दक्षिण में मुसलमानी मज़हब फैलाने के लिए आये थे। यहां इज़रत महम्मद साहब की डाढ़ी के कुछ बाल हैं । सुनते हैं वे हर साल बढ़ते हैं ! परन्तु इससे भी अधिक विलक्षण एक और बात वहां के धर्मरक्षक यात्रियों को बतलाते हैं। वे कहते हैं कि इस रौज़े के तैयार हो जाने पर इसके और अपने खर्च के लिए ख्वाजा साहब के चेलों को बहुत कष्ट होने लगा इसलिए उन्होंने धन के लिए ख्वाजा साहब से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना कबूल हुई, और हर रोज रौज़े के फर्श से चांदी का एक पेड़ निकलने लगा । वह रोज उखाड़ लिया जाता था और उसकी चांदी बेंच दी जाती थी। इससे इतना रुपया इकट्ठा हो गया कि थोड़े ही दिनों में एक जागीर मोल लेली गई और खर्च की तंगी जाती रही। तबसे पेड़ उगना बन्द हो गया; परन्तु चांदी के फूल कुछ दिन तक फिर भी निकलते रहे। इसके प्रमाण में गच पर, एक जगह,चाँदी के कुछ टुकड़े चिपके हुए दर्शकों को दिखालाये जाते हैं !