पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१०

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ers । कौतूहल उत्पन्न करना और उसका शिकार होना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। जीवन नाटक का एक महत्वपूर्ण भाग है। बच्चों में कौतूहल की प्रधानता होती है । वे हर वस्तु को आश्चर्य से देखकर उनके बारे में नाना प्रकार के प्रश्न करते हैं। यही स्थिति बड़ों की है। क्या ऐसा भी कभी आता है कि हमारा बचपन हमसे बिल्कुल छूट जाय ? सच तो यह है कि जैसे-जैसे हम विराट की ओर बढ़ते हैं हमारा एक बचपन छूटता है और दूसरा सामने आकर खड़ा हो जाता है । महाभारत युद्ध के मैदान में कृष्ण ने अपने भीतर के तिलस्म से परिचय कराया । अर्जुन उस विराट् तिलस्म को देखकर घबड़ा गया। वालक सा प्रार्थना करने लगा। इस तिलस्म की दुनिया को समेट लेने की प्रार्थना करने लगा। क्योंकि तिलस्म जीवन नहीं,जीवन का पार्श्व है। यह केवल देखने, दिखाने और जानने के लिए है । खत्री का तिलस्मटूटता है किंतु विराट का तिलस्म अखंड, अनादि और अनंत है। अर्जुन विमूढ़, रोमांच युक्त, भयभीत और चकित होकर सव देख गया। उसके कौतूहल को भय ने घेर लिया। तिलस्म से काम न होगा। चतुर्भुज रूप ही ठीक है । हे विश्व मूर्ते तुम अपने सामान्य रूप में ही मुझे दर्शन दो। अपने तिलस्म को समेटो । खत्री जी ने अपना तिलिस्मी तोड़ दिया। लगता है स्वयं इससे ऊब गये,फिर भी तिलस्म देखने-दिखाने से कोई वच नहीं सकता। देखने-दिखाने के बाद यह समेटा जा सकता है। किंतु एक बार देखना-दिखाना तो होगा ही। अर्जुन ने कृष्ण के तिलस्म में क्या नहीं देखा ? सब देखा, उत्तना इस तिलिस्म में कहाँ से आ सकता है? ईश्वरी और मानवी तिलस्म में अन्तर तो है ही। यह तिलस्म कभी देवता बनाते हैं और कभी दानव। मय दानव ने महाभारत में एक भ्रम तैयार किया था। इसी प्रम में दुर्योधन फँस गए। पानी को सूखा और सूखे को पानी समझ लिया। कहीं भीगे और कहीं चोट खा गये । असत् पात्र होने के कारण मय राक्षस की माया नहीं समझ सके । सत्य के कारण पांडव लाक्षागृह के तिलस्म को भी तोड़कर बच गये। बाहर आ गये ! पाँच दूसरे व्यक्ति जल गये,ऐसा इस तिलस्म में भी होता है। मुख्य नायक को बचाने के लिए किसी सामान्य पात्र की हत्या हो जाती है। बहुत दिनों तक लोग समझते हैं कि मुख्य नायक-नायिका की ही हत्या हो गयी । नरेन्द्र-मोहिनी में रम्भा बच गई और दूसरी औरत कत्ल हो गई। ऐसी स्थिति अन्यत्र भी देखने को मिलती है। महाभारत में भी सुरंगों की महत्ता है । तिलस्म का काम सुरंगों द्वारा होता है। दोनों ही स्थानों में सत्-असत् पात्र लड़ते हैं। लेखक स्वयं महाभारत का संकेत करते हैं-उसमें महाभारत की तस्वीरें बनी हुई थीं। ये तस्वीरें उसी ढंग की थीं जैसी कि उस तिलस्म बंगले में चलती-फिरती तस्वीरें इन लोगों ने देखी थी.... तस्वीरें एक-एक कर गायव हो रही हैं। यहाँ तक कि घड़ी भर के अन्दर ही सब तस्वीरें गायब हो गयीं और दीवार साफ दिखाई देने लगी । इसके बाद दीवार की चमक भी वन्द हो गई और फिर अन्धकार दिखाई देने लगा। -वाईसवाँ भाग,नौवें बयान में । यही तो संसार का रूपक है। चमकना । फिर गायब होना । फिर अन्धकार । शून्य भीति पर बने चित्र गायब हो जाते हैं। रह जाता है अन्धकार । 'शून्यता । बीसवाँ भाग नौवां बयान में इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा-मालूम होता है 'ब्राह्ममण्डल' यहीं है, इसी जगह हम लोगों को बरावर आना पड़ेगा तथा चुनारगढ़ के तिलस्म की चाभी भी इसी जगह से हमें मिलेगी। यह एक संकेत मात्र है। नवरसों में अद्भुत एक रस है। इसका स्थायी भाव विस्मय है । आश्चर्य है । किंतु साहित्य में यह आठवें स्थान पर है । गौण है । खत्री जी ने अद्भुत को प्रधान रस का दर्जा दिया है। श्रृंगार, करुण, वीर, भयानक आदि अंग हैं । और अद्भुत अंगी । शायद कोई रचना हो जिसमें अद्भुत रस इतने विस्तार से वर्णित हो । रासो के समान इनके उपन्यासों 1