पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२५६

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शि . t धीरे-धीरे रात हो जान के कारण चारों तरफ अन्धकार छा गया। उस हसीन औरत की सूरत-शक्ल भी जा थोडी ही देर पहिले साफ दिखाई दरही थी अव बखूबी दिखाई नहीं देती। यद्यपि उस औरत की मुहव्यत ने उदयसिह के दिल में अपनी जगह कर ली थी मगर वह उस मुहव्यत का अपने दिल स दूर कर देने का उद्योग करने लगा जो कि उसकी सामर्थ्य से बिलकुल ही बाहर था, हा अपने दोस्त रविदत्त की खोज से यह किसी तरह मुँह नहीं मोड़ सकता था परन्तु ऐस आदमी का पता लगाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था जा एक दफे आखों के सामन पडकर पुन अन्तर्ध्यान हो गया हो। उदयसिह उसी जगह खडाखडा तरह-तरह की बातें साच रहा था कि सामन स कई आदमियों के आने की आहट पाकर चौक पड़ा और उनकी तरफ देखन लगा जिनके तेजी के साथ चलने के कारण जगली पेड़ों से जुदा भये हुए सूख पत्ते चर्रमर कर रहे थे और जिनक साथ कई मशालें भी थीं। थोडी ही दर में और पास आन पर मालूम हुआ कि वे लोग जो चाल और पोशाक तथा हो के लहाज से फौजी सिपाही जान पड़ते थे गिनती में बीस-पच्चीस से कम न होगा पहिले तो उदयसिह के दिल में यह आया कि ऐसे समय में यहा स टल जाना ही उचित हागा जब वे लोग आगे निकल जायंगे तो जैसा हागा देखा जायेगा परन्तु साथ ही इसके यह भी विचार किया कि यदि में यहाँ स हट जाऊँगा और वे लाग इस औरत के पास पहुच जायेंगे ता ताज्जुब नहीं कि इसे लावारिस समझ के इसके साथ किसी तरह की बेअदबी का वर्ताव करें और यदि में यहाँ मौजूद रहूगा तो कह सुनकर उनके हाथों से इसे बचाऊँगा । आखिर पिछले विचार पर उदयसिह नज्यादे जोर दिया और उस औरत क पास ज्यों का त्यों खडा रहा। जब वे फोजी सिपाही उदयसिह के पास पहुंचे तो उनकी निगाह उदय सिंह और उस बहाश औरत पर पड़ी और सबके सब उसी जगह खड हा गया उन सिपाहियों में एक सिपाही सबका सार था और उनकी पोशाक भी बनिस्वत ओरों के ज्यादे भडकीली थी। यद्यपि उस सदार की तथा औरों की भी निगाह उदयसिंह पर पड़ी परन्तु किसी न भी उससे किसी तरह का सवाल न किया और न उसकी तरफ ध्यान दिया ऐसी अवस्था में उदयसिंह को स्वय कुछ पीछे हट जाना पड़ा। सर्दार ने अपने सिपाहियों की तरफ देख के कहा, विना डोली या पालकी के इन्हें उठाकर ले जाना ठीक न होगा। एक-- यदि होश आ जाय ता बेहतर है। सर्दार - तो भी क्या होगा? क्या पैदल जा सकेगी? दूसरा - खैर जा हुक्म ही किया जाय । सर्दार-(कुछ सोच कर) इनका होश में न आना ही अच्छा है तलदार से पेड़ की छोटी छोटी डालियों काटो और दा-तीन आदमियों की चादर लेकर झोली तैयार करो। सार की आज्ञा पाकर कई सिपाहियों ने "बहुत अच्छा' कहा और झोली तैयार करने की फिक्र करने लगे। उदयसिह इतनी देर तक चुपचाप खडा रहा मगर अव उससे चुप न रहा गया, उसने सर्दार के पास जाकर पूछा- उदयासह - आप किस लश्कर या फौज से सम्बन्ध रखते है और इन्हें ( औरत की तरफ इशारा करके)को ले जायेंगे? सर्दार- मै तुम्हारी बातों का जवाब न देना ही अच्छा समझता हूँ। मगर इतना कह देना जरूरी है कि तुम यहाँ से चुपचाप चले जाओ नहीं तो तुम्हारे हक में बेहतर न होगा। उदय-मगर बड़े अफसोस की बात है कि आप लोग सिपाही आदमी होकर एक सिपाही की बात का जयाब नहीं देते। सर्दार - मगर क्या तुम इस बात को नहीं जानते कि यहाँ वालों के लिए आजकल का समय कैसा है ? उदय - भै खूब जानता हूँ कि आजकल फौजी कानून का बर्ताव चड़ी सख्ती से हो रहा है। सर्दार-तिस पर भी मैंने तुमसे यह नहीं पूछा कि तुम कौन ओर कहा के रहने वाले हो क्या यह मामूली बात है ? इतना कह कर सर्दार ने बड़े गौर से उदयसिह की तरफ देखा और कुछ पीछे हट गया। उदयसिह भी उसके पास चला गया और कुछ पूछा चाहता ही था कि सर्दार ने धीरे से कहा "अगर मेरा तजुर्या मुझे धोखा नहीं देता तो मैं कह सकता हूँ कि तुम होनहार और बहादुरआदमी मालूम पड़ते हो तथा रुपटे पैसे की भी तुम्हें कमी नहीं है. अगर यह बात ठीक है तो तुम अपने क्षत्रीपन का हमें परिचय दो और इस बेचारी की कुछ मदद करो। मै स्वाधीन न होने के कारण लाचार हूँ परन्तु क्या करू दया मेरा पीछा नहीं छोडती, यद्यपि मै ऐसे आदमी का नमक खा रहा है जिसमें दया का लेश मान नहीं है ( हाथ पकड़ कर और धीरे से ) तुम्हारा नाम उदयसिह तो नहीं है ?" उदय -(ताज्जुब में आकर) वेशक मेरा यही नाम है मगर तुम मुझे कैसे जानते हो ? मैने तो तुम्हें कमी देखा नही । सर्दार- मै तुम्हें बहुत दिनों से जानता हू। कई लड़ाइयो में मेरा और तुम्हारे पिता का साथ रहा है। वह बड़े बहादुर आदमी है में इस समय तुमसे विशेष बात नहीं कर सकता क्योंकि मेरे आदमियों को शक हो जायगा मगर इतना जरूर देवकीनन्दन खत्री समग्र १२५८