पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/३२

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नाजिम ने क्रूरसिंह से अपनी पूरी कैफियत यानी चन्द्रकान्ता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अहमद का छुड़ा लाना, फिर वहाँ से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हजार रुपयों पर तेजसिंह को पकड़वा देने की बातचीत तै करना वगैरह, सब खुलासा कह सुनाया। क्रूरसिंह ने नाजिम के पकड़े जाने का हाल सुनकर कुछ अफसोस तो किया मगर पीछे तेजसिंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुनकर उछल पड़ा और बोला, "लो अभी हजार रुपये देता हूं बल्कि मै खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ यह कह कर हजार रुपये सन्दूक में से निकाले और नाजिम के साथ हो लिया। जय नाजिम क्रूरसिंह को साथ लेकर वहाँ पहुँचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ गया था तो दोनों में से कोई न. हुआ मिला । नाजिम तो सन्न हो गया और उसके मुंह से यह बात निकल पड़ी कि 'धोखा क्रूरसिंह-कहो नाजिम क्या हुआ ? नाजिम-क्या कहूँ, वह जरूर केतकी नहीं कोई ऐयार था जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया। क्रूरसिंह-खूब, तुम तो बाग ही में चपला के हाथ से पिट ही चुके थे, अहमद बाकी था सो वह भी इस वक्तं कहीं जूतें खाता.होगा, चलो छुट्टी हुई। नाजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर उधर खोज भी की पर कुछ पता न लगा, आखिर रोते पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया। छठवाँ बयान तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ बिदा कर बीरेन्द्रसिंह अपने महल में आये मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चन्द्रकान्ता की याद में सर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराला पाना तो चन्द्रकान्ता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना. या पलंग पर लेट मुँह टाँक खूब रोना, बस यही तो उनका काम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। बीरेन्द्रसिंह के बाप सुरेन्द्रसिंह को बीरेन्दसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते. कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबरदस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था। धीरेन्दसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती दफे कह दिया था कि तुम आज लौट आना। रात बारह बजे तक बीरेन्द्रसिंह नेतेजसिंह की राह देखा, जब वह न आये इनकी घबराहट और भी ज्यादा हो गई आखिर किसी तरह अपने को सम्हाला और मसहरी पर लेट दवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा हुआ ही चाहता था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठर लादे आ पहुँचे । पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे. मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने बीरेन्दसिंह के कमरे में पहुंच कर देखा कि अभी तक वे जाग रहे है। बीरेन्द्रसिंह तेजसिंह को देखते ही उठ खड़े हुए और · वोले, "कहो भाई क्या खबर लाये?" तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चन्द्रकान्ता की चीठी हाथ पर रख दी, अहमद की गठरी खोल के दिखा दिया और कहा, "यह चीठी है और यह सौगात! वीरेन्द्रसिंह बहुत खुश हुए। चीठी को कई मर्तबा पढ़ कर आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा, "सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रक्खो जहाँ किसी को मालूम न हो. अगर जयसिंह को खवर लगेगी तो फसाद बढ़ जायगा।" तेजसिंह-इस बात को मै पहिले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता यह कह कर तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेज कर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द दिली दोस्त और रिश्ते में साला भी लगता था. तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गये, तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा," आओ साथ चलो, तुमसे एक काम है। देवीसिंह ने कहा, "गुरुजी, यह गठरी मुझको दो मैं ले चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको "अच्छा नहीं लगता।" आखिर देवीसिंह ने यह गठरी पीठ पर लादली और तेजसिंह के पीछे चल निकले। 'ये दोनों शहर के बाहर हो जंगल और पहाड़ियों के घूमघुमौवे पेंचीदे रास्तों से जाते जाते दो कोस के करीब पहुँच कर एक अँधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहाँ जाकर तेजसिंहठहर गए और देवीसिंह से बोले, "गठरी रख दो।" देवीसिंह (गठरी रख कर) गुरुजी, यह तो अजीय जगह है, अगर कोई आवे भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाया तेजसिंह-सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता. तुमको अपना दिली दोस्त समझ कर ले आया हूं तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा। देवीसिंह-मै तुम्हारा तावेदार हूँ, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की भी चन्द्रकान्ता भाग १.