पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७२१

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2 तीसरा बयान दारोगा की सूरत दखते ही मेरी और अन्ना की जान सूख गई और हम दोनों को विश्वास हो गया कि पण्डितजी ने हमारे साथ दगा की। उस समय सिवा जान देने के और मैं कर क्या सकती थी? इधर उधर देखा पर जान देन का कोई जरिया दिखाई न पडा। अगर उस समय मेर पास कोई हर्वा होता तो मै जरूर अपने को मार डालती। दारोगा ने मुझ दूर से देखा और कदम बढ़ाता हुआ हम दानों के पास पहुचा। मार क्रोध के उसकी आखे लाल हो रही थीं और होंठ काप रहे था उसन अन्ना की तरफ देखकर कहा क्यों री कम्वस्त लौडी अव तू मेरे हाथ से बचकर कहा जायगी? यह सारा फसाद तरा ही उठाया हुआ है न तू दर्वाजा खोल कर दूसरे कमरे में जाती न गदाधरसिह को इस बात की खबर होती। तूने ही इन्दिरा को ले भागने की नीयत से मेरी जान आफत में डाली थी अस्तु अब मैं तेरी जान लिए बिना नहीं रह सकता क्योंकि तुझ पर मुझे बड़ा ही क्रोध है। इतना कह दारोगा न म्यान से तलवार निकाल ली और एक ही हाथ में बेचारी अन्ना का सर धड़ से अलग कर दिया उसकी लाश तड़पने लगी और में चिल्ला कर उठ खडी हुई। इतना हाल कहत-कहते इन्दिरा की आँखों में ऑसू भर आया। इन्दजीतसिह,आनन्दसिह और राजा गोपालसिह को भी उसकी अवस्था पर बडा दुख हुआ और बईमान नमकहराम दारोगा को क्रोध से याद करने लगे। तीनों भाइयों ने इन्दिरा को दिलासा दिया और चुप करा के अपना किस्सा पूरा करने के लिए कहा। इन्दिरा न ऑसू पोछ कर कहना शुरु किया- इन्दिरा-उस समय मैं समझती थी कि दारोगा मेरी अन्ना को तो मार ही चुका है अब उसी तलवार से मेरा भी सर काट के बखडा ते करगा मगर एसा न हुआ। उसने रुमाल से तलवार पोछ कर म्यान में रख ली और अपने नौकर के हाथ से चावुक ले मरे सामने आकर बोला अब युला गदाधरसिह को,आकर तेरी जान बचाये। इतना कह उसने मुझ उसी चाबुक से मारना शुरु किया। मैं मछली की तरह तड़प रही थी लेकिन उसे कुछ भी दया नहीं आती थी और वह बार-बार यही कहके चाबुक मारता था रि, अव बता मेरे कहे मुताबिक चीठी लिख देगी या नहीं? पर में इस बात का दिल में निश्चय कर चुकी थी कि चाह कैसी ही दुर्दशा से मेरी जान क्यों न ली जाय मगर उसके कहे मुताबिक चीठी कदापि न लिखूगी। चाबुक की मार खाकर मैं जोरजोर स चिल्लाने लगी। उसी समय दाहिनी तरफ से एक औरत दौडती हुई आई जिसने डपट कर दारांगा से कहा क्यों चायुक मार मार कर इस वेचारी की जान ले रहे हो? ऐसा करने से तुम्हारा मतलब कुछ भी न निकलेगा। तुम जो कुछ चाहते हो मुझे कहो मैं बात की बात मै तुम्हारा काम करा देती है। उस औरत की उम्र का पता बताना कठिन था न तो वह कमसिन थी और न बूढी ही थी, शायद तीस-पैतीस वर्ष की अवस्था हो या इससे कुछ कम ज्यादे हो। उसका रग काला और बदन गठीला तथा मजबूत था घुटने से कुछ नीचे तक का पायजामा और उसके ऊपर दक्षिणी ढग की साडी पहिरे हुए थी जिसकी लाग पीछे की तरफ खुसी थी। कमर में एक मोटा कपडा लपेटे हुए थी जिसमें शायद कोई गठरी या और कोई चीज बंधी हुई हो। उस औरत की बात सुनकर दारोगा ने चाबुक मारना बन्द किया और उसकी तरफ देख कर कहा, "तू कौन है ?" औरत-चाहे में कोई हाऊ इससे कुछ मतलव नहीं तुम जो कुछ चाहते हो मुझसे कहो मैं तुम्हारी ख्वाहिश पूरी कर दूंगी। चावुक मारत समय जो कुछ तुम कहते हो उससे मालूम होता है कि इस लडकी से तुम कुछ लिखाया चाहते हो। इससे जो कुछ लिखवाना हो मुझे बताओ मैं लिखवा दूंगी, इस समय मारने-पीटने से कोई काम नचलेगा क्योंकि इसके एक पक्षपाती ने जिसने अभी तुम्हारे आने की खबर दी थी इसे समझा बुझा के बहुत पक्का कर दिया है और वह खुद । हाथ का इशारा करके) उस कूए में जा छिपा है वह जरूर तुम पर वार करेगा। मेरे साथ चलो में दिखा दू। पहिले उसे दुरुस्त करो तब उसके बाद जो कुछ इस लड़की को कहोगे वह झख मार के कर देगी इसमें कोई सन्देह नहीं। दारोगा-क्या तूने खुद उस आदमी को देखा था। औरत-हॉ हाँ कहती तो हूँ कि मेरे साथ उस कूए पर चलो मैं उस आदमी को दिखा देती हू। दस-बारह कदम पर कूओं है कुछ दूर तो है नहीं। दारोगा-अच्छा चल कर मुझे बताओ ( अपने दोनों आदमियों से ) तुम दोनों इस लड़की के पास खडे रहः । वह औरत कूए की तरफ बढ़ी और दारोगा उसके पीछे-पीछे चला । वास्तव में वह कूओं बहुत दूर न था। जय दारोगा को लिये हुए वह औरत कूए पर पहुची तो अन्दर झॉक कर बोली 'देखा वह छिप कर बैठा है ! चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १६ ७१३