पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

इतने ही में दक्खिन तरफ वाले दालान में से धीरे-धीरे कुछ कल-पुर्जी के घूमने की आवाज आने लगी। कुमार ने उस तरफ देखा तो भैरोसिह और तारासिह की मूरत को अपने ठिकाने से चलते हुए पाया। उन दोनों मूरतों की अकड़- कर चलने वाली चाल भी ठीक वैसी ही थी जैसी कुमार उस शीशे के अन्दर देख चुके थे। जिस समय वे दोनों मूरतें चलती हुई उस शीशे वाली दीवार के पास पहुची उसी समय दीवार में एक दर्वाजा निकल आया और दोनों मूरतें उसके अन्दर घुस गई। इसके बाद कमलिनी और लाडिली की मूरतें चली और उनके पीछे वाला आदमी जो जजीर थामे हुए था पीछे-पीछे चला ये सब उसी तरह शीशे वाली दीवार के अन्दर जाकर थोड़ी देर के बाद फिर अपने ठिकाने लौट आये और वह दर्वाजा ज्यों का त्यों बन्द हो गया। अब कुअर इन्द्रजीतसिह के दिल मे किसी तरह का शक नहीं रहा, उन्हें निश्चय हो गयाकि उस शीशे वाले कमरे में जोकुछ हम दोनों ने सुना और देखा वह वास्तव में कुछ भी न था, या अगर कुछ था तो वही जो कि यहा आने से मालूम हुआ है, साथ ही इसके कुमार यह भी सोचने लगे कि 'ये हमारे सगी साथियों मुलाकातियों की मूरतें पुरानी बनी हुई है या उन तस्वीरों की तरह इन्हें भी राजा गोपालसिह ने स्थापित किया है और इन मूरतों का चलना-फिरना तथा इस बाजे का बोलना किसी खास वक्त पर मुकर्रर है या घण्टे-घण्टे दो-दो घण्टे पर ऐसा ही हुआ करता है ? मगर नहीं घड़ी-घडी व्यर्थ ऐसा होना अनुचित है। तो क्या जप शीशे वाले कमरे में कोई जाता है तभी ऐसी बातें होती है ! क्योंकि हम लोगों के भी वहा पहुचने पर यही दृश्य देखने में आया था। अगर मेरा यह खयाल ठीक है तो अब भी उस शीशे वाले कमरे में कोई पहुचा होगा 1 गैर आदमी का वहा पहुचना तो असम्भव है अगर कोई वहा पहुचता है तो चाहे वह आनन्दसिंह हो या राजा गोपालसिह हों। कौन ठिकाना फिर किसी कारण से आनन्दसिह वहा जा पहुचा हो। अगर ऐसा हो तो जिस तरह इस बाजे की आवाज उस कमरे में पहुंचती है उसी तरह मेरी आवाज भी वहा वाला सुन सकता है। इत्यादि बातें कुमार ने जल्दी-जल्दी सोची और इसके बाद ऊर्च स्वर में बोले 'शीशे वाले कमरे में कौन है? जवाब- मै हू आनन्दसिह. क्या मैं भाई साहब की आवाज सुन रहा हू? इन्द्रजीत-हा मै यहा आ पहुचा हू, तुम भी जहा तक जल्दी हो सके उस अजदहे के मुह में चले जाओ और हमारे पास पहुचो जवाय-बहुत अच्छा। सातवां बयान किस्मत जब चक्कर खिलाने लगती है तो दम भर भी सुख की नींद सोने नहीं देती। इसकी बुरी निगाह के नीचे पडे हुए आदर्मी को तभी कुछ निश्चिन्ती होती है जब इसका पूरा दौर (जो कुछ करना हो करके) बीत जाता है। इस किस्से को पढकर पाठक इतना तो जान ही गए होंगे कि इन्द्रदेव भी सुर्खियों की पक्ति में गिने जाने लायक नहीं है। वह भी जमाने के हाथों से अच्छी तरह सताया जा चुका है परन्तु उस जवामर्द की आखों में बहुत सी रातें उन दिनों की भी बीत चुकी है जब कि उसका मजबूत दिल कई तरह की खुशियों से नाउम्मीद होकर हरि इच्छा' का मन्त्र जपता हुआ एक तरह से बेफिक्र हो वैठा था, मगर आज उसके आगे फिर बडी दुखदाई घडी पहिले से दूना विकराल रुप धारण करके आ खड़ी हुई है। इतने दिन तक वह यह समझकर कि उसकी स्त्री और लडकी इस दुनिया से कूच कर गई सब करके बैठा हुआ था, लेकिन जब से उसे अपनी स्त्री और लड़की के इस दुनिया में मौजूद रहने का कुछ हाल और आपस वालों की बेईमानी का पता मालूम हुआ है तब से अफसोस रज और गुस्से से उसके दिल की अजब हालत हो रही है। लक्ष्मीदेवी कमलिनी और लाडिली को समझा बुझाकर जब इन्द्रदेव बलभद्रसिंह को छुडाने की नीयत से जमानिया की तरफ रवाना हुए तो पहाड़ी के नीचे पहुचकर उन्होंने अपने अस्तबल से एक उम्दा घोड़ा खोला और उस पर सवार हो पाच ही सात कदम आगे बढ़े थे कि राजा गोपालसिह का भेजा हुआ एक सवार आ पहुचा जिसने सलाम कर के एक चीठी उनके हाथ में दी और उन्होंने उसे खोल कर पढा। इस चीठी में राजा गोपालसिंह ने यही लिखा था "यह सुनकर आपको बड़ा आश्चर्य होगा कि आज कल इन्दिरा मेरे घर में है और उसकी मा भी जीती है जो यद्यपि तिलिस्म में फसी हुई है मगर उसे अपनी आखों से देख आया हू । अस्तु आप पत्र पढते ही अफेले मेरे पास चले आइये।' इस चीठी को पढकर इन्द्रदेव कितनाखुश हुए होंगे यह हमारे पाठक स्वयम् समझ सकते है। अस्तु वे तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुए और समय से पहिले ही जमानिया जा पहुंचे। जब राजा गोपालसिह को उनके आने की देवकीनन्दन खत्री समग्र ७२४