पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/७८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 मेरोसिह के दर्शन हुए थ । दातचीत करने के बाद तीनों ने जरुरी कामों से छुट्टी पाहाथ मुह धोकर स्नान किया और सध्योपासन से छुट्टी पाकर के चाग के मेवे और नहर के जल से सन्तोष करने के बाद बैठ कर यो बातचीत करने लगे- इन्दजीत-में उम्मीद करता हूँ कि कमलिनी किशोरी और कामिनी वगैरह से इसी बाग में मुलाकात होगी। आनन्द-नि सन्देह ऐसा ही है इस बाग में अच्छी तरह धूमना और यहाँ की हर एक बातों का पूरा-पूरा पता लगाना हम लोगों के लिए जरूरी है। भैरो-मेरा दिल भी यही गवाही देता है कि वे सब जरूर इसी बाग में होंगी मगर कही ऐसा न हुआ हो कि मेरी तरह से उन लोगों का दिमाग भी किसी कारण विशेष से बिगड़ गया हो। इन्दजीत-कोई ताज्जुब नहीं अगर ऐसा ही हुआ हो मगर तुम्हारी जुबानी मै सुन चुका है कि राजा गोपालसिह ने कमलिनी को बहुत कुछ समझा बुझा कर एक तिलिस्मी किताव भी दी है। भैरो-हा बशक मैं कह चुका हू और ठीक कह चुका है। इन्द्रजीत-ता यह भी उम्मीद कर सकता है कि कमलिनी को इस तिलिस्म का कुछ हाल मालूम हो और वह किसी कफ्दे में न फसे। भैरो-इस तिलिस्म में और है ही कौन जो उन लोगों के साथ दगा करेगा? आनन्द-बहुत ठीक । शायद आप अपनी नौजवान स्त्री और उसके हिमायती लड़कों को बिल्कुल ही भूल गए या हम लोगों की जुबानी सव हाल सुन कर भी आपको उसका कुछ खयाल न रहा । भैरो-(मुस्कुरा कर ) आपका कहना ठीक है मगर उन समों को इतना कह कर भैरोसिह चुप हो गया और कुछ सोचने लगा। दोनों कुमार भी किसी बात पर गौर करने लगे और कुछ देर बाद भैरोसिह ने इन्द्रजीतसिह से कहा- भैरो-आपको याद होगा कि लडकपन में एक दफे मैंने पागलपन की नकल की थी। इन्द्र-हा याद है तो क्या आज भी तुम जान बुझकर पागल बने हुए थे? भैरो-नहीं-नहीं मेरे कहने का मतलब यह नहीं बल्कि मै यह कहता हूं कि इस समय भी उसी तरह का पागल बन के शायद कोई काम निकाल सकू। आनन्द-हा ठीक तो है आप पागल बन के अपनी नौजवान स्त्री को बुलाइए जिस ढग से मै बताता हू। कुमार के बताये हुए ढग से भैरोसिह ने पागल बन के अपनी नौजवान स्त्री को कई दफे बुलाया मगर उसका नतीजा कुछ न निकला न तो कोई उसके पास आया और न किसी ने उसकी बात का जवाब ही दिया ,आखिर इन्द्रजीतसिह ने कहा बस करो उसे मालूम हो गया कि तुम्हारा पागलपन जाता रहा अब हम लोगों को फसाने के लिए वह जरुर कोई दूसरा ही दगलादेगी। आखिर भैरोसिह चुप हो रहे और थोड़ी देर बाद तीनों आदमी इधर-उधरका तमाशा देखने के लिए यहा से रवाना हुए। इस समय दिन बहुत कम वाकी था। तीनों आदमी बागके पश्चिम तरफ गये जिधर सगर्ममर की एक बारहदरी थी। उसके दोनों तरफ दो इमारतें और थी जिनके दर्वाजे बन्द रहने के कारण यह नहीं जाना जाता था कि उसके अन्दर क्या है, मगर बारहदरी खुले ढग की बनी हुई थी अर्थात् उसके पीछे की तरफ दीवानखान और आगे की तरफ केवल तेरह खम्भे लगे हुए थे जिनमें दवजिा चढाने की जगह न थी। इस वारहदरी के मध्य में एक सुन्दर चबूतरा बना हुआ था जिस पर कम से कम पन्दह आदमी बखूबी बैठ सकते थे। चबूतरे के ऊपर बीचो-बीचमें लोहे का चौखूटा तख्त था जिसमें उठाने के लिए कडी लगी हुई थी और चबूतरे के सामने की दीवार में एक छोटादर्वाजा था जो इस समय खुला हुआ था और उसके अन्दरदो-चार हाथ के बाद अन्धकार सा जान पडता था। भैरोसिह ने कुअर इन्द्रजीतसिह से कहा यदि आज्ञा हो तो इस छोटे से दर्वाजे के अन्दर जाकर देखू कि इसमें क्या है? इन्द्रजीत-यह तिलिस्म का मुकाम है खिलवाड नहीं है कहीं ऐसा न हो कि तुम अन्दर जाओ और दर्वाजा बन्द हो जाय ! फिर तुम्हारी क्या हालत होगी सो तुम्हीं सोच लो। आनन्द-पहिले यह तो देखो कि दर्वाजा लकड़ी का है या लोहे का? इन्द्रजीत भला तिलिस्म बनाने वाले इमारत के काम में लकड़ी क्यों लगाने लगे जिसके थोडे ही दिन में बिगड जाने का ख्याल होता है, मगर शक मिटाने के लिए यदि चाहो तो देख लो। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग १७ ७७५