पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/८४०

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ori आधी रकम तुम्हें दूंगा'इसके जवाब में दूसरे ने कहा कि 'देखो नानू यह काम तुम्हारे योग्य नहीं है मालिक के साथ दगा करने वाला कभी सुख नहीं भोग सकता, बेहतर है कि तुम मेरी बात मान जाओ नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा और मैं तुम्हारा दुश्मन बन जाऊगा'। यह जवाब सुनते ही नानू क्रोध में आकर उसे बुरा भला कहने और धमकाने लगा। उसी समय इसके सम्बोधन करने पर मुझे मालूम हुआ कि उस दूसरे का नाम वरदेवू है। खैर, जब मैंने जाना कि अव ये दानों अलग होते है तो मैं चुपके से चल पड़ी और अपने कमरे में लेट रही। थोड़ी ही देर में यह मेरे पास पहुंचा और बोला ‘यस अब जल्दी से उठ खडी हो और मेरे पीछे चली आओ क्योंकि अब वह मौका आ गया कि मैं तुम्हें इस आफत में बचा कर बाहर निकाल दूं।' इसके जवाब में मैंने कहा कि बस रहने दीजिए आपकी सब कलई खुल गई, मैं आपकी और वरदवू की बातें छिपकर सुन चुकी हूँ, मॉ को आने दीजिए तो मैं आपकी खबर लेती हूँ। इतना सुनते ही यहलाल-पीला होकर बोला कि खैर देख लेना कि मैं तेरी खबर लेता हूँ या तू मेरी खवर लेती है । बस यह कह के चला गया और थोडी देर में मैने अपने को सख्त पहरे में पाया। मनो-ठीक है अब मुझे असल बातों का पता लग गया ! नानू (क्रोध के साथ) ऐसी तेज और धूर्त लड़की तो आज तक मैंने देखी ही नहीं । मेरे सामन ही मुझे झूठा और दोषी बना रही है और अपने सहायक बरदेवू को निर्दोष बनाया चाहती है ! इतना कहकर इन्दिरा कुछ देर के लिए रुक गई और थोड़ा सा जल पीने के बाद बोली- "जो कुछ मैने कहा उस पर मनोरमा को विश्वास हो गया।' इन्द्रजीत-विश्वास होना ही चाहिए. इसमें कोई शक नहीं कि तूने जो कुछ मनोरमा से कहा उसका एक-एक अक्षर चालाकी और होशियारी से भरा हुआ था । कमला-नि सन्देह, अच्छा तब क्या हुआ? इन्दिरा-नानू ने मुझे झूठा बनाने के लिए बहुत जोर मारा मगर कुछ कर न सका क्योंकि मनोरमा के दिल पर मरी बातों का पूरा असर पड़ चुका था। उस पुर्जे के टुकड़ों ने उसी को दोषी ठहराया जो उसने बरदेवू को दोषी ठहराने के लिये चुन रक्खे थे क्योंकि बरदेवू ने यह पुर्जा अक्षर बिगाडकर ऐसे ढग से लिखा था कि उसके कलम का लिखा हुआ कोई कह नहीं सकता था। मनोरमा ने इशारे से मुझे हट जाने के लिए कहा और मै उठकर कमरे के अन्दर चली गई। थोडी देरबाद, जब मैं उसके बुलाने पर पुन बाहर गई तो वहाँ मनोरमा को अकेले बैठे हुए पाया। उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ कर मैंने पूछा कि माँ, नानू कहाँ गया ? इसके जवाब में मनोरमा ने कहा कि बेटी, नानू को मैंने कैदखाने में भेज दिया। ये लोग उस कम्बख्त दारोगा के साथी और बड़े ही शैतान है इसलिए किसी न किसी तरह इन लोगों को दोषी ठहरा कर जहन्नुम में मिला देना ही उचित है। अब मैं उस दारोगा से बदला लेने की धुन में लगी हुई ह इसी काम के लिए मै बाहर गई थी और इस समय पुन जाने के लिए तैयार हूँ केवल तुझे देखने के लिए चली आई थी तू येफिक्री के साथ यहा रह, आशा है कि कल शाम तक मैं अवश्य लौट आऊगी। जब तक मैं उस कम्बख्त से बदला न ले लूं और तेरे बाप को कैद से छुड़ा न लूं तब तक एक घड़ी के लिए अपना समय नष्ट करना नहीं चाहती। वरदेवू को अच्छी तरह समझा जाऊँगी, वह तुझे किसी तरह की तकलीफ न होने देगा। इन बातों को सुनकर मैं बहुत खुश हुई और सोचने लगी कि यह कम्बख्त जहाँ तक शीघ्र चली जाय उत्तम है क्योंकि मुझे हर तरह से निश्चय हो चुका था कि यह मेरी मॉ नहीं है और यहाँ से यकायक निकल जाना भी कठिन है। साथ ही इसके मेरा दिल कह रहा था कि मेरा बाप कैद नहीं हुआ यह सब मनोरमा की बनावट है जो मेरे याप का कैद होना बता रही है। मनोरमा चली गई मगर उसने शायद ठीक मुझको यह न बताया कि नानू के साथ क्या सलूक किया या अब वह कहा है फिर भी मनोरमा के चले जाने के बाद मैंने नानू को न देखा और न किसी लौड़ी या नौकर ही ने उसके बारे में कभी मुझसे कुछ कहा। अबकी दफे मनोरमा के चले जाने के बाद मुझ पर उतना सख्त पहरा नहीं रहा जितना नानू ने बडा दिया था मगर वहॉ का कोई आदमी मेरी तरफ से गाफिल भी न था। उसी दिन आधी रात के समय जब मैं कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई नींद नआने के कारण तरह-तरहके मनसूबे बाँध रही थी, यकायक वरदेवू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और बोला,"शावाश, तूने बड़ी चालाकी से मुझे बचा लिया और ऐसी बात गढ़ी कि मनोरमा को नानू ही पर पूरा शक हो गया और मैं इस आफत से बच गया नहीं तो नानू ने मुझे पूरी तरह फॉस लिया था, क्योंकि यह पुर्जा वास्तव में मेरा ही लिखा हुआ था। मै तुझसे बहुत खुश हू और तुझे इस योग्य समझता हू कि तेरी सहायता करू। देवकीनन्दन खत्री समग्र ८३२