पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९०७

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स मुझे सन्ताय न हुआ। मैंने अपने आदमियों को सख्त सजा दी और बराबर इन्दिरा का पता लगाता रहा। अब स! के मिल जाने से मालूम हुआ कि उस दिन मेरी कम्बख्त आखों ने मेरे साथ दगा की और दारोगा के मकान में बीमार सर्दू को में पहिचान न सका। मेरी आखों के सामने स! मर चुकी थी और मैंने खुद अपने हाथ से इन्द्रदेव को यह समाचार लिखा था इसलिय उन्हें किसी तरह का शक्कत न हुआ और सर्दू तथा इन्दिरा के गम में ये दीवाने से हो गये हर तरह के चेन और आराम को इन्होंने इस्तीफा दे दिया और उदासीन हो एक प्रकार से साधू ही बन बैठे। मुझस भी मुहय्यत कम कर दी और शहर का रहना छोड़ अपने तिलिस्म के अन्दर चले गय और उसी में रहने लगे मगर न मालूम क्या सोचकर इन्होंने मुझे वहा का रास्ता न बताया। मुझ पर भी इस मामले का बडा असर पड़ा क्योंकि ये सब बातें मेरी ही नालायकी के सबब रो हुई थीं अतएव मैन उदासीन हो रणधीरसिहजी की नौकरी छोड़ दी और अपनबाल-बच्चों तथा स्त्री को भी उन्हीं के यहाँ छोड बिना किसी को कुछ कहे जगल और पहाड का रास्ता लिया। उधर एक और स्त्री से मैंने शादी कर ली थी जिससे नानक पैदा हुआ है उधर भी कई एसे मामले हो गए जिनसे में बहुत उदास और परेशान हो रहा था उसका हाल नानक की जुबानी तेजसिह को मालूम ही हो चुका है बल्कि आप लोगों ने भी सुना ही होगा। अस्तु हर तरह से अपने को नालायक समझ कर मैं निकल भागा और फिर मुद्दत तक अपना मुह किसी को न दिखाया। इधर जब जमाने ने पलटा खाया तब मै कमलिनीजी से मिला। उन दिनों मरे दिल में विश्वास हो गया था कि इन्ददेव मुझसे रज है अस्तु मैने इनसे भी मिलना जुलना छाड दिया बल्कि यों कहना चाहिए कि हमारी इतनी पुरानी दोस्ती का उन दिनों अन्त हा गया था ! इन्द्रदेव- बेशक यही बात थी। स्त्री के मरने की खबर सुनकर मुझ बड़ा ही रज हुआ। मुझे कुछ तो भूतनाथ की जुपानी और कुछ तहकीकात करने पर मालूम ही हो चुका था कि मेरी लउकी और स्त्री इसी की बदौलत जहन्नुम में मिल गई अस्तु मैने भूतनाथ की दोस्ती को तिलाजली दे दी ओर मिलना जुलना बिल्कुल बन्द कर दिया मगर इससे कहा कुछ भी नहीं क्योंकि मैं अपनी जुबान से दारागा को माफ कर चुका था, इसके अतिरिक्त इसने मुझ पर कुछ एहसान भी तो जर ही किये थे उनका भी खयाल था अस्तु मैंने कुछ कहा तो नहीं मार इसकी तरफ से दिल हटा लिया और फिर अपना कोई भेद भी इसे नहीं बताया। कभी-कभी इसस मुझसे इधर उधर मुलाकात हो जाती थी क्योंकि इसे मैंने अपने, मकान का तिलिस्मीरास्ता नहीं दिखाया था। अगर यह कभी मेरे मकान पर आया भी तो अपनी आँखों में पट्टी बाँध कर। यही सबब था कि इसे लक्ष्मीदेवी का हाल मालूम न हुआ। लक्ष्मीदेवी के बारे में भी मै इसे कसूरवार समझता था और मुझे यह भी विश्वास था कि यह अपना बहुत सा भेद मुझसे छिपाता है और वास्तव में छिपाता था भी। भूत-(इद्रदेव से ) नहीं सो बात तो नहीं है मेरे कृपालु मित्र । -इन्द-अगर यह बात नहीं है तो वह कलमदान जिसे तुम आखिरी मर्तबे इन्दिरा के साथ दारोगा के यहा से उठा लाये और मुझे द गये थे मेरे यहा से गायव क्यों हो गया ? भूत-( मुस्कुराकर ) आपके किस मकान में से वह कलमदान गायब हो गया था ? इन्द्र-काशीजी वाले मकान में से। उसी दिन तुम मुझसे मिलने के लिए वहा आये थे और उसी दिन वह कलमदान गायब हो गया। भूत-ठीक है ता उस कलमदान को चुराने वाला मैं नहीं है बल्कि भेरा लडका नानक है मै तो यों भी अगर जरुरत पडती तो तुमसे वह कलमदान माग सकता था। दारोगा की आज्ञानुसार लाडिली ने रामभोली बनकर नानक को धोखा दिया और आपके यहा स कलमदान चुरवा मगवाया !* गोपाल-हा ठीक है इस बात का तो में भी सकारुंगा क्योंकि मुझे इसका असल हाल मालूम है। बेशक इसी ढ़ग से वह कलमदान वहा पहुंचा था और अन्त में बड़ी मुश्किल से उस समय मेरे हाथ लगा, जब मैं कृष्णाजिन्न बनकर राहतासगढ पहुचा था। नानक को विश्वास है कि लाडिली ने राममोली बनकर उसे धोखा दिया था मगर वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। वह एक दूसरी ही ऐयारा थी जो रामभोली बनी थी लाडिली ने तो केवल एक ही दिन या दो दिन रामभोली का रूप धरा था। जीत-(राजा गोपालसिह से) वह कलमदान आपको कहा से मिल गया ? दारोगाने तो उसे बडी ही हिफाजत से रक्खा होगा ! गोपाल-येशक एसा ही है मगर भूतनाथ की बदौलत वह मुझे सहज ही में मिल गया। ऐसी-ऐसी चीजों को दारोगा बहुत गुप्त रीति से अपने अजायबघर में रखता था जिसक ताली मायारानी से लेकर भूतनाथ ने मुझे दी थी। उस

  • देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति चौथा भाग छठवा बयान ।

चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २१ ८९९