पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९६

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--- क्यों जा रहे है? इसका जवाब में अफसर ने कहा कि 'वहाँ उन्हें अपने लडके रनवीरसिह के पाने की आशा है। बस यही बात जासूस ने सुनी थी। कुसुम--अगर यही बात है तो तुम्हें बहुत जल्द इसका सच्चा पता लग जायगा क्योंकि महाराज की अगदानी (इस्तकबाल) के लिये तुमको और दीवान साहब को इसी समय जाना होगा। वीरसेन-जी हाँ दीवान साहब महाराज की खातिरदारी का इन्तजाम कर रहे है और मैं भी उसी बन्दोबस्त में लगा हू, आधी घडी के अन्दर ही हमलोग चले जायेंगे। कुसुम-शायाश, देखो मैं तुम्हें भाई के बराबर समझती हू और तुम पर बहुत भरोसा रखती हूइसलिये कहती हूकि मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है, मैं आज कल अपने होश हवास में नहीं हू अस्तु जो कुछ मुनासिय समझा करो ऐसा न हो कि किसी बात में कमी हो जाय और पीछे शर्मिन्दगी उठानी पड़े। वीरसेन नहीं नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता आम बेफिक्र रहे, किसी तरह की बदनामीन होने पावेगी.अच्छा तो अब मुझे जाने की आज्ञा मिले क्योंकि अभी बहुत काम करना है। कुसुम-अच्छा जाओ। इक्कतीसवां बयान अब हम अपने पाठकों को राजा नारायणदत्त के लश्कर में ले चलते है। कुसुमकुमारी की राजधानी तेजगढ़ से लगभग दो कोस की दूरी पर राजा नारायणदत का लरकर उतरा हुआ है। लश्कर में हजार बारह सौ आदमियों से ज्याद की भीड़ भाड नहीं है और कोई बहुत बडा या शानदार खेमा वा शामियाना भी दिखाई नहीं.देता. छोटी मोटी मामूली राबटियों में अफसरों सर्दारों तथा गल्ला इत्यादि बाटने वालों का डेरा पड़ा हुआ है और उसी तरह की एक रावटी में राजा नारायणदत्त का भी आसन लगा हुआ है और रावटियों में राजासाहब की रावटी से यदि कुछ भेद है तो इतना ही कि राजासाहव की रावटी आसमानी रग की है और बाकी सब रावटिया सफेद कपड़े की। पहरभर से कुछ ज्यादे रात बीत जाने पर जिस समय कुसुमकुमारी के दीवान ओर वीरसेन वहाँ पहुचे और आज्ञानुसार राजा साहब के पास हाजिर किये गए उस समय उन्होंने देखा कि राजा साहब एक चटाई पर साधु रूप से वेठे हुए है सिर के बाल सँवारे न जाने के कारण विखरे हुए है. ललाट में भस्म का त्रिपुण्ड और बीच में सिन्दूर की बिन्दी लगी हुई है, बदन में गेरुएरग क रेशमी कपड़े का एक चोगा है जिससे तमाम बदन ढका हुआ है. पूरायूदार जल और इत्र मे शरीर की सेवा न होने पर भी प्रताप और तपोबल उनके सुन्दर तथा सुडौल घेहर झलक रहा है और बड़ी बडी ऑखें एक ग्रन्थ की तरफ झुकी हुई है जो लकडी की छोटीसी,चौकी पर उनके सामने रक्खा हुआ है और जिसके बगल में घी का बड़ा सा चिराग जल रहा है। पाठकों को आश्चर्य होगा कि नारायणदत्त राजा होने पर भी साधुओं की तरह क्यों रहते हैं ? और ऐसी अवस्था में राजकाज कैसे देखते होंगे? इसके जवाब में यदि हम राजा साहब का असल हाल न कहें तो भी इतना कहना आवश्यक है कि राजा नारायणदत्त जब बिहार की गद्दी पर बैठे थे तब से साल भर तक तो उसी ढग और टीमटान के साथ रहे जिस तरह राजा लोग रहते हैं मगर उसके बाद उन्होंने अपना ढग और रहन सहन तथा खानपान आदि विल्कुल बदल दिया, सादा अन्न अपने हाथ से बनाकर खाना सादा कपडा पहिरना जमीन पर सोना और दार का समय छोड दिनरात ग्रन्थ देखने और ईश्वराधन में बिताना उनका काम था। देशरीर सुख या मनोविलास के लिय कोई काम न करते और प्रजा के हित साधन का ध्यान बहुत रखते थे और प्रजा भी उन्हें ईश्वर के तुल्य समझती थी। सतोगुण स्वभाव और आचरण रहने पर भी जब वे दर्बार में बैठते थे तो दुष्टा को दण्ड की आज्ञा दिये विना न रहते थे। उन्हें पत्नी न थी और न कोई भाईबन्द था, हॉ रनवीरसिह को लडके से बढकर मानते और बडा स्नेह रखते थे। इस बात का ध्यान तो बहुत ही रखते थे कि राज्य की आमदनी राज्य और प्रजा ही के हित में लगे। राजा नारायणदत्त में केवल इतनी ही बात न थी यल्कि एक दो बातें और भी थी। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि-"हमारे ऐसा राजा औरों के लिये चाहे सुखदाई क्यों न हो परन्तु व्यापारियों के लिये दुखदाई होता है। उससे व्यापार की कच्ची दीवार को धक्का लगता है और ऐसा होने से देश में व्यापार की उन्नति नहीं होती। इसीलिये वे - 3 देवकीनन्दन सनी समग्र ११०४