पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९९८

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६ इसके बाद बाहर का हाल बहुत दिनों तक कुछ भी मालूम न हुआ कि क्या हो रहा है और क्या हुआ। बहुत दिनों तक वहा से बाहर निकलने के लिए उद्योग करते रह परन्तु सब व्यर्थ हुआ और वहा से छुट्टी तभी मिली जब दोनों कुमारों के दर्शन हुए। कुछ दिनों बाद दलीपशाह से भी उसी बाग में मुलाकात हुई जिसका हाल उनका किस्सा सुनने से आप लागों को मालूम होगा। बस इतना ही तो मेरा किस्सा है, हा जय आप लोग दलीपशाह की कहानी सुनेंगे तब वेशक कुछ आनन्द मिलेगा। (एक नकाबपोश की तरफ बताकर) मेरा पुराना र्खरख्वाह हरदीन यही है जो इतने दिनों तक मेर दुःख सुख का साथी बना रहा और अन्त में मेर साथ ही कैद से छूटा। भरतसिह की कथा समाप्त हाने के बाद दार वस्ति किया गया और महाराजाहुक्म दिया कि कल के दरिम दलीपशाह अपना किस्सा क्यान करंगे । ग्यारहवां बयान दूसरे दिन पुन उसी ढग का दर लगा और सब काई अपन ठिकान पर बैठ गये। इशारा पाकर दलीपशाह उठ खड़ा हुआ और उसने अपने चहरे पर से नकाब हटा कर दारागा जैपाल बेगम और नागर वगेरह की तरफ देख कर कहा- दलीप-आप लोगों को खुशकिस्मती का जमाना ता बीत गया अब वह जमाना आ गया है कि आप लोग अपन किए का फल भोगें और देखें कि आपने जिन लोगों को जहन्नुम में पहुचान का बीड़ा उठाया था आज ईश्वर की कृपा से वे ही लोग आपका हॅसते खेलते दिखाई दते हैं। खैर मुझे इन बातों स काई मतलब नहीं इसका निपटारा ता महाराज की आज्ञा से होगा मुझे अपना किस्सा बयान करने का हुक्म हुआ है सो व्यान करता हु । (और लोगों की तरफ देख कर) मरे किस्से से भूतनाथ का भी बहुत बडा सम्बन्ध है मगर इस खयाल स कि महाराज ने भूतनाथ का कसूर माफ करके उसे अपना ऐयार बना लिया ई मै अपने किस्स में उन गत्तों का जिक्र छोडता जाऊगा जिससेभूतनाथ की बदनामी होती है इसके अतिरिक्त भूतनाथ प्रतिज्ञानुसार महाराज के आग पेश करन के लिए स्वय अपनी जीवनी लिख रहा है जिसस महाराज का पूरा पूरा हाल मालूम हो जायगा अस्तु मुझे कुछ कहने की जरूरत भी नहीं है। मै मिर्जापुर के रहने वाले दीनदयालसिह ऐयार का लड़का हू! मेरे पिता महाराज धौलपुर के यहा रहते थे और वहा उनकी बहुत इज्जत और कदर थी। उन्होंन मुझे एयारी सिखाने में किसी तरह की सुदि नहीं की जहा तक हो सका दिल लगा कर मुझे एयारी सिखाई और भी इस फन मे खूब होशियार हा गया, परन्तु पिता के मरने के बाद मैने किसी रियासत में नौकरी नहीं की। मुझे अपने पिता की जगह मिलती थी और महाराज मुझे बहुत चाहत थे, मगर मैंने पिता के मरने के साथ ही रियासत छोड़ दी और अपने जन्म-स्थान मिर्जापुर में चला आया क्याकि मेरे पिता मेरे लिए बहुत दौलत छोड गय थे और मुझ खान पीन की कुछ परवाह न थी। पिता के देहान्त के साल भर पहिले ही भेरी मा मर चुकी थी अतएव केवल मैं और मेरी स्त्री दो ही आदमी अपन घर के मालिक थे। जमानिया की रियासत में मुझे फिसी तरह का सम्बन्ध नहीं था परन्तु इस लिए कि मैं एक नामी ऐयार का लडका और खुद भी ऐवार था तथा बहुत से ऐयारों से गहरी जान पहिचान रखता था मुझे चारो तरफ की खबरें बराबर मिला करती थीं इसी तरह जमानिया में जो कुछ चालबाजिया हुआ करती थी वह भी मुझसे छिपी हुई न थीं। मूतनाथ की स्त्री और मेरी स्त्री आपुस में मौसरी बहिने हाती हैं और मूतनाथ को जमानिया से बहुत घना सम्बन्ध हो गया था इसलिए जमानिया का हाल जानने के लिए मै उद्योग भी किया करता था मगर उसमें किसी तरह का दखल नहीं देता था। (दारोगा की तरफ इशारा करके) इस हरामखोर दारोगा ने रियासत पर अपना दवाब डालने की नीयत से विचित्र ढोग रच लिया था, शादी नहीं की थी और बाबाजी तथा ब्रह्मचारी के नाम से अपने को प्रसिद्ध कर रक्या था बल्कि मौके मौके पर लोगों को कहा करता था कि मैं तो साधू आदमी हू मुझे रुपये पैस की जरूरत ही क्या है. मैं तो रियासत की भलाई और परोपकार में अपना समय बिताना चाहता हू, इत्यादि। पर तु वास्तव में यह परले सिरे का ऐयाश बदमाश और लालची था जिनके विषय में कुछ विशेष कहना मैं पसन्द नह' करता।

दखिए चन्द्रकान्ता सन्तति बीसवा भाग चोथा बयान । देवकीनन्दन खत्री समग्र