पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९९७

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दूसरे दिन दर्बार-आम का बन्दावस्त किया गया और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए बडे शौक से लोग इकट्ठा होने लग। हथकड़ियों और बड़ियों से जकड हुए कैदी लाग हाजिर किए गए और आयुस वाला तथा ऐयारों का साथ लिए हुए महाराज भी दर्बार में आकर एक ऊँची गद्दी पर बैठ गये। आज क दर्यार में भीड मामूली से बहुत ज्यादे थी और कैदियों का मुकदमा सुनने के लिए सभी उतावले हो रहे थे। भरतसिह दलीपशाह,अर्जुनसिह तथा उनके और भी दो साथी जो तिलिस्म के बाहर हाने के बाद अपने घर चल गए थे और अव लाट आये हैं अपने अपने चेहरा पर नकाब डाल कर दर्बार में राजा गोपालसिह के पास बैठ गये और महाराज के हुक्म का इन्तजार करने लगे। महाराज का इशारा पाकर भरतसिह खडे हा गए आर उन्होंने दारांगा तथा जेपाल की तरफ देख कर कहा- दारोगा साहब जरा मेरी तरफ दखिए और पहिचानिए कि मैं कौन हू। जैपाल तू भी इधर निगाह कर ।' इतना कह कर भरतसिह ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और एक दफे चारों तरफ देख कर सभों का ध्यान अपनी तरफ खंच लिया। सूरत देखते ही दारोगा और जैपाल थर थर कापने लगे। दारोगा ने लडखडाई हुई आवाज में कहा कौन ? ओफ भरतसिह । नहीं नहीं भरतसिह कहाँ ? उस मरे बहुत दिन हो गए यह जो कोई ऐयार है ।। भरत-नहीं नहीं दारागा साहब मैं ऐयार नही हू, मै वही भरतसिह हू जिसे आपने हद से ज्यादा सताया था में वही भरतसिह हू जिसके मुह पर आपन मिर्च का तोबडा चढाया था और में वही भरतसिह हू जिस आपने अधेरे कूएँ में लटका दिया था। सुनिय में अपना किस्सा बयान करता है और यह भी कहता हूं कि आखीर में मेरी जान क्योंकर बची। जैपालसिह आप भी सुनिए और हुकारी भरते चलिए। इतना कहकर भरतसिह ने अपना किस्सा आदि से कहना आरम्भ किया जैसा कि हम ऊपर बयान कर आये हैं और इसकेगद यों कहन लगे- भरत-दारागा की बाता ने मुझे घबडा दिया और मै उलटे पैर मोहनजी वैद्य को बुलाने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का रत्ती भर भी शक न था कि मोहनजी और दारोगा साहब एक ही थैली के चट्टे बट्टे है अथवा इन दोनों में हमारे लिए कुछ बाते ते पा चुकी है। मैं बेघडक उनके मकान पर गया और इत्तिला करान के बाद उनक एकान्त वाले कमरे में जा पहुंचा जहा उन्होंने मुझे बुला भेजा था। उस समय वे अकेल बैठे माला जप रहे थ। नोकर मुझे वहाँ तक पहुचाकर विदा हो गया और मैने उनक पास बेडकर राजा साहब का हाल बयान करक खास बाग में चलन के लिए कहा। जवाब में वैद्यजी यह कह कर कि मैं दवाओं का बन्दोवस्त करके अभी आपके साथ चलता हू खडे हुए और आलमारी में से कई तरह की शीशियों निकाल निकाल जमीन पर रखने लग! उसी बीच में उन्होंने एक छोटी शीशी निकाल कर मेरे हाथ मे दी और कहा ‘देखिए यह मैंने एक नये ढग की ताकत की दवा तयार की है खाना तो दूर रहा इसके सूघने ही से तुरन्त मालूम हाता है कि बदन में एक तरह । ताकत आ रही है लीजिए जरा सूघ क अन्दाज तो कीजिए। मैं वैद्यजी के फेर में पड़ गया ओर शीशी का मुह खाल कर सूधने लगा। इतना तो मालूम हुआ कि इसमें कोई खुशबूदार चीज है मगर फिर तनोवदन की सुध न रही। जब मैं होश में आया ता अपने को हथकडी बेडी से मजबूर एक अधेरी कोठरी में कैद पाया। नहीं कह सकता कि वह दिन का समय था या रात का। कोठरी के एक कोने में चिराग जल रहा था और दारागा तथा जैपाल हाथ में नगी तलगर लिए सामने देठ हुए थे। मैं (दारागा से ) अब मालूम हुआ कि आपने इसी काम के लिए मुझे वैद्यजी के पास मजा था। दारोगा-वेशक इसीलिए क्योंकि तुम मरी जड काटने के लिए तैयार हा चुके थे। मैं-ता फिर मुझे कैद कर रखने स क्या फायदा? मार कर बखेडा निपटाइए और घेखटके आनन्द कीजिए। दारोगा-हा अगर तुम मेरी बात न मानोगे तो बेशक मुझे ऐसा ही करना पड़ेगा। मैं-मानने की कौन सी बात है? मैने ता अभी तक कोई एसा काम नहीं किया जिससे आपको किसी तरह का नुकसान पहुच। दारोगा-ये सब बातें तो रहन दो क्योंकि तुम और हरदीन मिल कर जो कुछ कर चुके थे और जो किया चाहते थे उसे मै खूब जानता हू मगर बात यह है कि अगर तुम चाहा तोमे तुम्हें इस कैद से छुट्टी दे सकता हू नहीं तो मौत तुम्हारे लिए रक्सी मै-खैर बतलाइये ता सही कि वह कौन सा काम है जिसके करन से छुट्टी मिल सकती है । दारोगा-यही कि तुम एक चीठी इन रघुबरसिह अर्थात् जैपाल के नाम की लिख दो जिसमें यह बात हो कि लक्ष्मीदेवी के बदले में मुन्दर को मायारानी बना देन में जो कुछ मेहात की हे यह हम तुम दोनों न मिल कर की है अतएव चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २३ ९९१ -