विद्याकेन्द्रों में भाँति-भाँति के शास्त्र और विद्याएँ पढ़ाई जाती थीं, जिसकी ख्याति देश- देशान्तरों में थी, तो दूसरी ओर ये धर्मपाखण्ड और अत्याचार चल रहे थे।
इस काल में सद् गृहस्थ ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं का समान आदर सत्कार करते थे। शैवों-शाक्तों और वाममार्गियों के कई अघोरी पन्थ भी थे जिनसे गृहस्थ भयभीत रहते थे। पौराणिक धर्म के पुनरुत्थान के साथ जिन देवी-देवताओं की उपासना का आरम्भ हुआ, बौद्ध उनकी उपेक्षा नहीं कर सके। उन्होंने उन्हें नये नामों से अपने धर्म में सम्मिलित कर लिया। मंजुश्री तारा, अवलोकितेश्वर आदि नामों से अनेक देवी-देवताओं ने बौद्धधर्म में भी प्रवेश कर लिया था। कुछ तो इस कारण से और कुछ तन्त्रवाद के प्रवेश ने शक्ति के उपासक पौराणिक और वज्रयानी बौद्धों को परस्पर निकट ला दिया था। पौराणिकों ने बुद्ध को दस अवतारों में गिन लिया था। पालदेशी बौद्ध राजा थे-पर ब्राह्मणों को भी मानते थे। सातवीं शताब्दी ही में अनेक ऐसे पौराणिक पण्डितों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपनी तर्कशक्ति और विद्वत्ता के प्रभाव से सबको चकाचौंध कर दिया। कुमारिल भट्ट और प्रभाकर के नाम इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। शंकर भी एक असाधारण पुरुष थे। इनके कारण बौद्ध भिक्षुओं का प्रताप कम अवश्य पड़ गया था पर बौद्ध संघ को स्थापित हुए हजार साल से भी ऊपर हो चुके थे। उनके मठों में अतोल सम्पदा जमा हो गई थी। और मगध के विहारों में हजारों भिक्षु निश्चिंत होकर आनन्द के साथ जीवन व्यतीत करते थे। वे केवल अब नाम के भिक्षु थे। भिक्षा माँगने भिक्षा पात्र लेकर उन्हें अब लोगों के घर जाना नहीं पड़ता था। इधर आश्रमों और मठों के रहने वाले सन्यासियों में भी स्फूर्ति उदय हुई थी। इससे भारत में उस समय बौद्धों के प्रति उदासीनता बढ़ती जाती थी। परन्तु आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक पाँच सौ वर्षों में वज्रयान ने एक प्रकार से सारी ही भारतीय जनता को कामी, व्यसनी, शराबी और अन्धविश्वासी बना दिया था। राजा लोग तो अब भी किसी सिद्धाचार्य और उनके तांत्रिक शिष्यों की पलटनें साथ रखते थे जिन पर भारी खर्च किया जाता था।