तलवार
ई. स. 1192 में तराइन की रणस्थली में चौहान कुल-कमल दिवाकर पृथ्वीराज का सौभाग्य सूर्य अस्त हुआ। इसके दो वर्ष बाद चन्दोवर की भूमि में कन्नौज के जयचन्द्र को भी मुस्लिम तलवार का पानी पी खेत रहना पड़ा। इसके बाद हिन्दू संस्कृति के एकमात्र गढ़ बनारस पर मुस्लिम तलवार जा धमकी।
इसके तीन बरस बाद ही मुहम्मद गोरी का एक गुलाम सेनानायक मोहम्मद-बिन- वाखूपार केवल पाँच हजार सवार लेकर विहार में जा धमका। जहाँ इस समय बौद्ध विहारों और विद्याकेन्द्रों की भरमार थी, वहाँ तुर्कों ने अपने चिरशत्रु पीत कफनी पहने और सिर मुड़ाए 'बुत-परस्तों' को देखा, जिनका उन्हें कटु अनुभव था। जब तुर्कों ने मध्य एशिया पर आक्रमण किए थे तब वहाँ के भिक्षुओं ने उनसे कठिन लोहा लिया था। वे अपने इन चिरशत्रुओं पर टूट पड़े, जिनके धर्म की जड़ अनाचार से खोखली हो चली थी। उन्होंने गाजर-मूली की भाँति सबको काट डाला। एक भी घुटे सिर वाले को जीवित न छोड़ा। पालवंशी दुर्बल राजा अनायास ही परास्त हो गए। नालन्दा विक्रमशिला और उदन्तपुरी के विहारों को लूटकर और जलाकर उन्होंने खाकस्याह कर दिया। वहाँ के दुर्लभ पुस्तकालय भी उन्होंने जलाकर भस्म के ढेर कर दिए और वहाँ से असंख्य धन-रत्न लेकर वह आगे बढ़े। बंगाल की राजधानी नदिया में मोहम्मद ने केवल बारह सवारों के साथ प्रवेश किया। लोगों ने उन्हें घोड़ों का सौदागर समझा। पर जब उन्होंने राजद्वार पर जाकर मारकाट मचाई तो भगदड़ मच गई। बंगाल का राजा परम माहेश्वर लक्ष्मणसेन उस समय भोजन कर रहा था। वह शोर सुनकर बदहवास हो गया; उससे कुछ भी करते न बन पड़ा। और महल के पिछले द्वार से निकल भागा।
केवल बारह मुस्लिम तलवारों ने बंगाल को विजय कर लिया।
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शाक्य श्रीभद्र विक्रमशिला विश्वविद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भागकर पूर्वी बंगाल के 'जगत्तला' विहार में पहुँचे। जब वहाँ भी तुर्कों की तलवार गई तो वे अपने शिष्यों के साथ भागकर नेपाल चले गए। उनके आने की खबर सुनकर तिब्बत के सामन्त कीर्तिध्वज ने उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित किया। वहाँ वे बहुत वर्षों तक रहे। शाक्य श्रीभद्र की भाँति अनेक बौद्ध भिक्षुओं तथा सिद्धों ने जाकर बाहर के देशों में शरण ली। इस प्रकार भारत से बौद्ध धर्म का लोप हो गया।