कुमार ने स्थिर स्वर में कहा—"पितृव्य, पितृचरणों में निवेदन कर दो कि यह दास तैयार है।"
सुखदास ने क्षण-भर ओस से भीगे हुए शतदल कमल की भाँति सुषमा सम्पन्न कुमार के मुख की ओर देखा—— और 'अच्छा' कहकर वहाँ से चला गया।
इसी समय श्रेष्ठि ने आकर दोनों हाथ फैलाकर कहा—"पुत्र, प्यारे पुत्र!"
दिवोदास ने सम्मुख खड़े होकर कहा——"पितृचरणों में अभिवादन करता हूँ।"
"आयुष्मान् हो, यशस्वी हो, पुत्र।"
"अनुगृहीत हुआ।"
"तो पुत्र, तुम तैयार हो?" श्रेष्ठि ने कम्पित कण्ठ से कहा।
"हाँ पिता।"
"पुत्र, मेरा हृदय बैठा जा रहा है।"
"पिताजी, यह तो आनन्द का अवसर है।"
"अरे पुत्र, तेरे बिना मैं रहूँगा कैसे? यह सारी पृथ्वी तप्त तवे की भाँति अभी से जलती दीख रही है। अब यह सुख-वैभव, धनराशि... हाय, मैंने सोचा था... किन्तु महाराज की आज्ञा..." सेठ के होंठ काँपे और नेत्रों से आँसू टपक पड़े।
सुखदास ने व्यस्त भाव से आकर कहा——"स्वामिन्, महाराजाधिराज श्री गोविन्दपाल देव तथा भिक्षुश्रेष्ठ आचार्य बन्धुगुप्त पधार रहे हैं।"
धनंजय सेठ ने आँखें पोछी और उनकी अभ्यर्थना को दौड़ चले। उन्होंने महाराज और भिक्षुश्रेष्ठ की अभ्यर्थना की और कक्ष में ले आए।
दिवोदास ने भूपात करके साष्टांग प्रणाम किया।
बन्धुगुप्त ने दोनों हाथ ऊँचे कर कहा——"कल्याण, कल्याण!" फिर आगे बढ़कर सेठ से कहा——"श्रेष्ठिराज, महासंघस्थविर वज्रसिद्धि ने आपका मंगल पूछा है, तथा मंजुश्री वज्रतारा देवी का यह गन्धमाल्य दिया है।"
धनंजय सेठ ने गन्धमाल्य लेकर मस्तक पर रक्खा। और कहा—"भला महासंघस्थविर प्रसन्न तो हैं?"
"वे सदा सबकी कल्याण-कामना में लगे रहते हैं, वे सर्वत्यागी सिद्ध महापुरुष हैं, उन्हें सुख-दु:ख नहीं व्यापता।" फिर उन्होंने आगे बढ़कर कुमार के मस्तक पर हाथ धर कहा—"धन्य कुमार! तुमने वही किया जो तथागत ने किया था, तुम्हारा जीवन धन्य हुआ।"
दिवोदास ने मौनभाव से आचार्य के चरणों में मस्तक नवा दिया।
सेठ ने कहा—“आचार्य मैंने अपना कुल-दीपक धर्म के लिए दिया।"
"श्रेष्ठिराज, यह संसार का दीपक बनेगा।"
इस समय महाराज ने आगे बढ़कर सेठ के कन्धे पर हाथ धरके कहा—"क्या तुम बहुत दुखी हो श्रेष्ठि।"
"नहीं देव, किन्तु अब यही इच्छा है कि ये महल-अटारी, धन-स्वर्ण, सभी संघ की शरण हो जाय, और वह अधम भी संघ के एक कोने में स्थान प्राप्त करे।"
आचार्य ने प्रसन्न मुद्रा में कहा—“यह बहुत अच्छा विचार है। श्रेष्ठिराज, धर्म में