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गुरु-शिष्य



आचार्य का रंग अत्यन्त काला था। डील-डौल के भी वे खूब लम्बे थे पर शरीर उनका कृश था। हड्डियों के ढाँचे पर चमड़ी का खोल मढ़ा था। गोल-गोल आँखें गढ़े में धंसी थीं। गालों पर उभरी हुई हड्डी एक विशेष भयानक आकृति बनाती थी। उनका लोकनाम शबर प्रसिद्ध था। वे भूत-प्रेत-बैतालों के स्वामी कहे जाते थे। मारण-मोहन-उच्चाटन तन्त्र-मन्त्र के वे रहस्यमय ज्ञाता थे। वे नीच कुलोत्पन्न थे। कोई कहता––वे जात के डोम हैं, कोई उन्हें धोबी बताता था। वे प्राय: अटपटी भाषा में बातें किया करते थे। लोग उनसे भय खाते थे। पर उन्हें परम सिद्ध समझकर उनकी पूजा भी करते थे। वज्रयान सम्प्रदाय के वे माने हुए आचार्य थे।

भिक्षु धर्मानुज को उन्हीं का अन्तेवासी बनाया गया। धर्मानुज को एक कोठरी रहने को, दो चीवर और दो सारिकाएँ दी गई थीं। एकान्त मनन करने के साथ ही वह आचार्य वज्रसिद्धि से वज्रयान के गूढ़ सिद्धान्त भी समझता था, परन्तु शीघ्र ही गुरु-शिष्य में खटपट हो गई। भिक्षु धर्मानुज एक सीधा, सदाचारी किन्तु दृढ़ चित्त का पुरुष था। वह तन्त्र-मन्त्र और उनके गूढ़ प्रभवों पर विश्वास नहीं करता था। अभिचार प्रयोगों से भी उसने विरक्ति प्रकट की। इसी से एक दिन गुरु-शिष्य में ठन गई।

गुरु ने कहा—सौम्य धर्मानुज, विश्वास से लाभ होता है। पर धर्मानुज ने कहा—"आचार्य, मैंने सुना था——ज्ञान से लाभ होता है।"

"परन्तु ज्ञान गुरु की भक्ति से प्राप्त होता है।"

"इसकी अपेक्षा सूक्ष्म विवेक-शक्ति अधिक सहायक है।"

"तू मूढ़ है आयुष्मान्।"

"इसी से मैं आपकी शरण में आया हूँ।"

"तो यह मन्त्र सिद्ध कर-किलि, किलि, घिरि, घिरि, हुर, हुर वैरोचन गर्भ संचित गस्थरियकस गर्भ महाकारुणिक, ओम् तारे ओम तुमतारेतुरे स्वाहा।"

"यह कैसा मन्त्र है आचार्य।"

"यह रत्नकूट सूत्र है। घोख इसे।"

"पर यह तो बुद्ध वाक्य नहीं है।

"अरे मूढ़! यह गुरुवाक्य है।"

"पर इसका क्या अर्थ है आचार्य?"

"अर्थ से तुझे क्या प्रयोजन है, इसे सिद्ध कर।"