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पृष्ठ:देवांगना.djvu/५२

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एकान्त मिलन



वैसा ही मनोरम प्रभात था। दिवोदास उसी पुष्करिणी के तीर पर उसी वृक्ष की छाया में बैठा, निर्मल जल में खेलती लहरों को देख रहा था। वह कोई गीत गा रहा था। और उसका मन प्रफुल्ल था। उसने प्रेमविभोर हो आप ही आप कहा—प्रेम-प्रेम-प्रेम, प्रेम के स्मरण से ही आत्मा कैसी हरी हो जाती है! हृदय में हिलोरें उठती हैं, जैसे नये प्राण शरीर में आ गए हों। वह जैसे प्रत्यक्ष मंजु की रूप-माधुरी को देखने लगा। उसके मुँह से निकला—"वाह, कैसी रूप-माधुरी है, कैसी चितवन है, वीणा झंकार के समान उसकी स्वरलहरी रक्त की बूँदों को उत्मत्त कर डालती है। परन्तु खेद है, मुझे और कदाचित् उसे भी इस विषय पर चिन्तन करने का अधिकार नहीं है। मैं भिक्षु हूँ और वह देवदासी। मेरे लिए संसार मिट्टी का ढेला है और उसके लिए अन्धेरा कुआँ।" वह कुछ देर चुपचाप एकटक लहरों को देखता रहा। फिर उसने आप ही आप असंयत होकर कहा—"क्या यही धर्म है? परन्तु इस धर्म का तो जीवन के साथ कुछ भी सहयोग नहीं दीखता? वह धर्म कैसा? जो जीवन से है-जीवन का विरोधी है, जो जीवन का पातक है। नहीं, नहीं, वह धर्म नहीं है––पाखण्ड है। प्यार ही सब धर्म से बढ़कर धर्म है।"

उसे दूर से मंजु की स्वर-लहरी सुनाई दी। वह उठकर इधर-उधर देखने लगा। मंजु फूलों से भरी टोकरी लिए उसी ओर गुनगुनाती आ रही थी। दिवोदास ने कहा—"आहा, वही स्वर्ग की सुन्दरी है। कैसी अपार्थिव इसकी सुषमा है! वन सज गया, संसार सुन्दर हो गया।" उसने आगे बढ़कर कहा...

"मंजु!"

"क्या तुम? भिक्षु धर्मानुज!"

"हाँ मंजु! किस शक्ति ने मुझसे तुम्हें इस समय यहाँ मिला दिया, कहो तो?"

"प्रेम की शक्ति ने प्रिय भिक्षु, क्या तुम प्रेम के विषय में कुछ जानते हो?"

"ओह, कुछ-कुछ, किन्तु तुम्हारा वह गान कैसा हृदय को उन्मत्त करने वाला था।"

"तुम्हें प्रिय लगा?"

"बहुत-बहुत, उसने मेरे हृदय की वीणा के तारों को छेड़ दिया है, वे अब मिलना ही चाहते हैं। देवी, कैसा सुन्दर यह संसार है, कैसा मनोहर यह प्रभात है, और उनसे अधिक तुम, केवल तुम।"

"क्या तुमसे भी अधिक भिक्षुराज?"

"मैं क्या तुम्हें सुन्दर दीख पड़ता हूँ?"