पृष्ठ:देवांगना.djvu/५५

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गुरु के सम्मुख



आचार्य वज्रसिद्धि ने एकान्त कक्ष में दिवोदास को बुलाकर कहा—"यह क्या वत्स, मैंने सुना है कि तुमने चीवर त्याग दिया—भिक्षु-मर्यादा भंग कर दी?"

"आपने सत्य ही सुना आचार्य।"

"किन्तु यह तो गर्हित पापकर्म है!"

"आप तो मुझे प्रथम ही पाप मुक्त कर चुके हैं आचार्य, अब भला पाप मुझे कहाँ स्पर्श कर सकता है!"

"पुत्र, तुम अपने आचार्य का उपहास कर रहे हो?"

"आचार्य जैसा समझें।"

"पुत्र, क्या बात है कि तुम मुझसे भयशंकित हो दूर-दूर हो। तुम्हें तो अपने प्रधान बारह शिष्यों का प्रधान बनाया है। तुम्हें क्या चिन्ता है! मन की बात मुझसे कहो। मैं तुम्हारा गुरु हूँ।"

"आचार्य, मुझे आपसे कुछ कहना नहीं है।"

"क्यों?"

"मैं कुछ कह नहीं सकता।"

"तुम्हें कहना होगा पुत्र!"

"तब सुनिए कि मैं भिक्षु नहीं हूँ-विवाहित सद्गृहस्थ हूँ।"

"ऐं, यह कैसी बात?"

"जैसा आचार्य समझें।"

"क्या तुम सद्धर्म पर श्रद्धा नहीं रखते?"

"नहीं।"

"कारण?

"कारण बताऊँगा तो आचार्य, अविनय होगा।"

"मैं आज्ञा देता हूँ, कहो।"

"तो सुनिए, आप धर्म की आड़ में धोखा और स्वार्थ का खेल खेल रहे हैं। बाहर कुछ और भीतर कुछ। सब कार्य पाखण्डमय हैं।"

"बस, या और कुछ?”

"आचार्य, आपने क्यों मेरा सर्वनाश किया? मुझे इस कपट धर्म में दीक्षित किया? आपने संयम, त्याग, वैराग्य और ज्ञान की कितनी डींग मारी थी, वह सब तो झूठ था न?"