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पृष्ठ:देवांगना.djvu/७८

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आँखों पर छिड़कने से थोड़ी देर में दिवोदास को होश आ गया। उसने आँखें खोलकर मंजु को देखा-उसके होंठ से निकला—"मंजु प्रिये।"

मंजु उसके वक्ष पर गिरकर फफक-फफक कर रोने लगी।

दिवोदास ने धीमे स्वर से कहा—"मैं जानता था कि तुम आओगी, सो तुम आ गईं।"

उसने मंजु को हृदय से लगा लिया। कुछ देर बाद कहा—

"अब मैं सुख से मर सकूँगा।"

"मरेंगे तुम्हारे शत्रु।" उसने दृढ़ता से उठकर दिवोदास का सिर अपनी गोद में रख लिया।

"प्यारी, तुमने मुझे जिला दिया।" दिवोदास ने कहा।

"मैंने नहीं प्रिय, इस देव पुरुष ने", मंजु ने उस चरवाहे की ओर संकेत किया।

दिवोदास ने अब तक उसे नहीं देखा था। अब उसकी ओर देखकर कहा :

"तुम कौन हो भाई।"

"मैं चरवाहा हूँ, पास ही गाँव में रहता हूँ, यहाँ नित्य बकरी चराता हूँ। भीतर आने-जाने की राह यह मैंने अपने लिए बना ली थी। संध्या को जब मैं घर लोट रहा था इन्हें मूर्च्छित पड़ा देखा। इसी से रुक गया। लड़के को बकरी लेकर घर भेज दिया। सो अच्छा ही हुआ-दो-दो प्राणी बच गए।" बूढ़ा बहुत खुश था।

दिवोदास ने कहा—"बचा लिया तुमने बाबा, तुम उस जन्म के मेरे पिता हो। अब यहाँ मेरे पास आकर बैठो।" बूढ़ा भी वहीं बैठ गया। उसने कहा—"अब तो रात यहीं काटनी होगी। परन्तु खाने को तो कुछ भी नहीं मिल सकता। देखता हूँ, तुम दोनों भूखे हो।"

मंजु ने कहा—"मेरे साथ थोड़ा भोजन है, उससे हम तीनों का आधार हो जायगा।"

उसने पोटली खोली। तीनों ने थोड़ा-थोड़ा खाकर पानी पिया। भोजन करने से दिवोदास में कुछ शक्ति आई। वह एक पत्थर के सहारे बैठ गया। चरवाहे ने कहा—"थोड़ी आग जलानी होगी, नहीं तो वन पशु का भय है। मैं ईंधन लाता हूँ।" और वह उठकर चला गया।

मंजु ने उसके गले में बाँहे डालकर कहा—"अब तुम तनिक हँस दो।"

"क्या मैं फिर कभी हँस भी सकूँगा?"

"हम सदैव हँसेंगे, गाएँगे, मौज करेंगे।" और वह दिवोदास से लिपट गई।

दिवोदास ने कहा—"प्यारी, तुम्हारी इस स्नेह दान ने मेरे बुझते हुए जीवन-दीपक को बुझने से बचा लिया। और तुम्हारी मधुर वाणी ने मेरे सूखे हुए जीवन को हरा-भरा कर दिया।" उसने उसे अपने बाहुपाश में कसकर अगणित चुम्बन ले डाले।

चरवाहे ने एक गट्ठर लकड़ी लाकर उसमें आग लगा दी। और तीनों आदमी वहीं पृथ्वी पर लेट गए। मंजु पड़ते ही गहरी नींद में सो गई। वह बहुत थकी थी। दिवोदास भी दुर्बल था। वह भी सो गया। परन्तु चरवाहा बड़ी देर तक जागता रहा।

प्रात:काल होते ही नित्यकर्म से निवृत्त होकर तीनों ने सलाह की। दिवोदास ने वृद्ध का हाथ पकड़कर कहा—"मित्र, तुम मेरे आज से पितृव्य हुए। अब हम-तुम कभी पृथक् न होंगे। मेरे दुख-सुख में तुम्हारा साझा रहेगा।"

बूढ़े ने हँसकर कहा—"तुम चिन्ता न करो भाई। तुम्हारे बराबर ही मेरा लड़का है, और ऐसी ही लड़की भी है। तुम भी मेरे लड़के-लड़की रहे। गाँव चलो, बहुत जमीन है,