सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:देवांगना.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

मंजु ने कहा—"वही हूँ, और तुमसे पूछती हूँ, कि तुम मनुष्य को मनुष्य की भाँति क्यों नहीं रहने देना चाहते?"

वज्रसिद्धि ने फिर गरज कर कहा—"बाँधो, इस पापिष्ठा को।"

जनता में कोलाहल उठ खड़ा हुआ। सहस्रों भिक्षु रथ पर टूट पड़े।

अब उस भव्य सौम्य पुरुष-मूर्ति ने हाथ उठाकर कहा—"सब कोई जहाँ हो-वहीं शान्त खड़े रहो।"

इस बार फिर सन्नाटा हो गया। उसी भव्य मूर्ति ने उच्च स्वर से पुनः कहा—"मैं ज्ञानश्री मित्र हूँ। तुम्हें शान्त रहने को कहता हूँ।"

आचार्य ज्ञानश्री मित्र का नाम सुनते ही-सहस्र-सहस्र सिर पृथ्वी पर झुक गये। महाराज गोविन्दपाल देव ने उठकर साष्टांग दण्डवत् किया। लोग आश्चर्य विमुग्ध उस महापुरुष को देखने लगे जिसका दर्शन पाना दुर्लभ था तथा जो त्रिकालदर्शी प्रसिद्ध था।

आचार्य ने देवी सुनयना को संकेत किया। उन्होंने वस्त्र में आवेष्टित बालक को मंजु की गोद में दे दिया। मंजु ने खड्ग रखकर बालक को छाती से लगाकर कहा—"यह मेरा पुत्र है, जिसे वे अभागे धर्म-पाखण्डी पाप का फल कहते हैं, जिनके अपने पाप ही अगणित हैं।"

भिक्षुओं में फिर क्षोभ उठ खड़ा हुआ।

आचार्य ज्ञान ने मेघ गर्जन के स्वर में कहा—"भिक्षुओ, शान्त रहो।" फिर उन्होंने दिवोदास के मस्तक पर हाथ रखकर कहा—"उठो श्रेष्ठि पुत्र।"

दिवोदास जैसे गहरी नींद से जग गया हो। उसने इधर-उधर आश्चर्य से देखा-फिर पुत्र को गोद में लिए मंजु को सम्मुख मुस्कराती खड़ी देखकर बारम्बार आँख मलकर कहा—"यह मैं क्या देख रहा हूँ-स्वप्न है या सत्य।"

"सब सत्य है, प्राणाधिक, यह तुम्हारा पुत्र है, इसका चन्द्रमुख देखो।"

दिवोदास का लुप्त ज्ञान पीछे लौट रहा था-उसने भुन-भुनाकर कहा—"कैसी मीठी भाषा है, कैसे ठण्डे शब्द हैं, अहा, कैसा सुख मिला, जैसे कलेजे में ठण्डक पड़ गई।"

मंजु ने कहा—"प्यारे, प्राणेश्वर, इधर देखो।"

उसने दिवोदास का हाथ पकड़ लिया। दिवोदास का उस स्पर्श से चैतन्य हो जाग उठा-उसने कहा—"क्या, क्या, तुम हो-सचमुच? तो यह स्वप्न नहीं है?" वह फिर आँखें मलने लगा।

मंजु ने कहा—"स्वामिन्, आर्य पुत्र, यह तुम्हारा पुत्र है, लो।"

"मेरा पुत्र?" उसने दोनों हाथ फैला दिए। पुत्र को लेकर उसने छाती से लगा लिया।

वज्रसिद्धि ने एक बार फिर अपना प्रभाव प्रकट करना चाहा। उसने ललकारकर कहा—"भिक्षुओ, इन धर्म-विद्रोहियों को बाँध लो।"

भिक्षुओं ने एक बार फिर शोर मचाया। वे रथ पर टूट पड़े। दिवोदास ने रोकना चाहा-परन्तु वह धक्का खाकर गिर गया।

सहसा महाराज गोविन्दपाल देव ने खड़े होकर कहा—“जो जहाँ है, वहीं खड़ा रहे।"

महाराज की घोषणा सुनते ही एक बार स्तब्धता छा गई। महाराज ने सेनापति को