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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१०५

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देव-सुधा

पहिले सुनि राख्यौहोभाख्यो सखीरसचाख्योअचानककानपुटी, लखि चित्र चरित्र लख्यो साने अबतौखिन आँखिन आँखिजुटी; उमग्या मनु देव लग्यो पनु सो गुरुबंधुनि का धन-रासि लुटो, कुल-कानि की गाठिते न्याहियो,हियत कुन-कानिकगाँठिछुट।।

इस छंद में कवि नायक के चारो प्रकारों के दर्शन का वर्णन काता है। यरा-प्राण चित्र-दर्शन स्वतावलोकन तथा प्रत्यक्ष दर्शन, ये चार प्रकार के दर्शन कहलाते हैं।

कानपुटो = कानों के रंध्र । पनुषण । कानि-मर्यादा।

सारसी सारस. हसिनो हंप, चकारी चकार मिले सुख लूटें, देव चित चकच मा बिछुरेनिमि के बिल-घु !-से घुट; केते कपात मृगो मग रो युग जा. न जो युग योग ते फूट, फूलो लता रस के बस दौरत भौर के भारन डार न टूटैं।१३७।।

दंपति-मिलन के उदाहरण ।

बिप-धूंट-से घू₹ = विष-के से घुट निगलते हैं (विष-घूट के निगलने में जो समय लगता है, वह नितांत दुःखद होता है । उसो प्रकार रात करतो है)।

आपुस मैं रस मैं रहसे बहसैं बनि राविका कुजविहारी, स्यामा सराहति स्याम कि पागहि,स्याम सराहतस्यामाकि सारी; एकहि पारसो देखि कहै तिय नीके लगौ पिय प्यो कहै प्यारी, देवजू बालमवाल कोबाद बिलाकिभई वलिहौंवजिहारी॥१३८॥

युगल-विलास ।

रहसैं = विनोद करते हैं । भई बलि हौं बलिहारी = बलि जाऊँ , मैं निछावर हो गई।