पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०२
देव-सुधा

दूनह को देखत हिए में हूलफूल है

बनावति दुकूल फूल फूलनि बसति है;

सुनत अनूप रूप नूतन निहारि तनु

अतनु तुला में तनु तोलति सचति है।

लाज-भय-मूल न उघारि भुज - मूलन

अकेली है नबेली बाल केली मैं हँसति है;

पहिरति हेरति उतारति धरति देव

दोऊ कर कंचुकी उकासति-कसति है ।।१३६॥

नायक के दर्शन से नायिका के मन में तन्मयता एवं उद्वेग (चित्त की आकुलता) उत्पन्न होता है। नूतन = नवीन । अतनु = नहीं है तनु जिसके, अर्थात् कामदेव । सचति है = सचेत होती है। मूलन = जड़ों । फूल फूलनि बसति है = प्रतिफूल को दुकूल में इतने विचार से लगाती है, मानो प्रत्येक फूल में स्वयं बस जाती सुनत है । = सुनती थी। हूल फूल = लोट-पोट । लाज-भय- मूल न = लज्जा अथवा भय का मूल उसमें नहीं है, अर्थात् प्रौढ़ा है।

आँखिन आँखि लगाए रहै सुनिए धुनि कानन को सुखकारी, देव रही हिय मैं घर के न रुकै निसरै बिसर न बिसारी; फूल मैं बासु ज्यों मूल सुबासु को है फल फूलि रही फुलवारी, प्यारी उज्यारी हिएभरि पूरि हैदूरिनजीवन-मूरि हमारी॥१४०॥

नायक अपनी नायिका का हृदयस्थ होना प्रकट करता है। निसरै-निकले । जीवन-मूरि = जीवन की जड़ ' अर्थात् जीव- नावलंब ।