यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०३
देव-सुधा
रीमि-रीझि, रहसि-रहसिक, हँसि-हँसि , साँसै भरि, आँसू भरि कहत दई - दई;
चौंकि-चौंकि, चकि-चकि, उचकि-उचकि देव, जकि-जकि, बकि-बकि परत बई-बई।।
दुहुन के रूप • गुन दोऊ बरनत फिरें,
घर न थिरात रीति नेह की नई-नई ;
मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय, राधा - मन मोहि-मोहि मोहनमई भई ॥ १४१॥
राधा और कृष्ण के अन्योन्य प्रेम का वर्णन है। इस छंद में भाव-समुच्चय की मुख्यता है।
(२०)
प्रेम
जाके मद मात्यौ सो उमात्यौ न कहूँ है कोई, बूड्यो उछल्यौ न तस्यौ सोभा-सिंधु सामुहै ;
पीवत ही जाहि कोई मरथो, सो अमर भयो, बौरान्यौ जगत जान्यौ मान्यौ सुख-धामु है।
- प्रसन्न होकर ।
+ अलग।
- निर्मद हुआ।
$ दुनिया ने उसे पागल जाना, किंतु प्रेमी ने वही सुख का घर मानाः।