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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१२८

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देव-सुधा

व्रजवासियों को व्रज समझ ही नहीं पड़ता है, क्योंकि सारा ब्रज ब्रजराज (भगवान् ) मय हो गया है ।

ठई = स्थित।

ए अपनी करनी किन देखत देव कहौं न बनाइ कछू मैं , घायल द्वै करसायल* ज्यौं मृग त्यौं उतही अतुगयला घूमैं ; मेटिबे को तन-ताप दुहू भुज भेटिबे को झपट झुकि झूमैं , चित्र के मंदिर मित्र तुम्हैं लखि चित्र की मूरति को मुख चूमैं ।

नायक नायिका की तसवीर देखकर उद्विग्न हो जाता है । सखी नायिका से नायक को दशा का वर्णन करती है।

आँखिमिहीचनि खेलत मोहि दुहू विधि सोधकहूँनटि जाइन; चोर है मोर कैनंदकिमोर रीजाह छिपै पै कहूँ सटि जाइ न, नैन-मिहीचौं जुपै उनके तजि लाज सनेह कहूँ हटि जाइन, नाथ हा ! हाथ सरोज-से मेरे करेरे कटाच्छ कहूँकटि जाइन।

  • काला मृग ।

+ अातुरता से, जल्दी है।

  • आँख-मैं दौवल।

$ चोर-मिहीचनी का नियम है कि प्रत्येक खेलनेवाला चोर से छिपता है, किंतु एक बार ज़ोर से पुकार देता है कि खोजो। जिसको चोर खोज ले, वह दूसरे बार के खेल में चोर हो जाता है।

  • यदि लाज छोड़कर नायक के नैन बंद करूँ, तो स्नेह-वश

कहीं हाथ न हट जाय कि नैन अधमीचे रह जाय, और उसे सब देख पड़ें, जिससे खेल बिगड़ जाय ।

x हे नाथ, तुम्हारे हाथ कमल-से हैं, सो मेरे कड़े कटातों से कहीं कट न जाय।