सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२६
देव-सुधा

ऐसे निरमोही सों सनेह बाँधि हौं बधाई

आपु बिधि बूड़यो माँझ बाधा सिंधु निराधार ;

एरे मन मेरे तैं घनेरे दुख दीन्हें, अब

ए केवार दैके तोहि मदि मारौं एक बार ।। १८३ ।।

बिधि बूझ्यो = विधि-पूर्वक डूबा, अच्छी तरह डूब गया या फँसकर डूब गया। माँझ = बीच में। केवार = केवाड़े। कपाट पलकें हैं। औचक अगाध सिंधु स्याही को उमड़ि आयो,

तामै तीनौ लोक बूड़ि गए यक संग मैं ;

कारे-कारे आखर लिखे जु कारे कागर,

सुन्यारे करि बाँचै कौन जाँचै चित भंग मैं ।

आँखिन मैं तिमिर अमावस की रैनि जिमि

जंबुरस - बुंद जमुना • जल - तरंग मैं ;

यों ही मन मेरो मेरे काम को न रह्यो माई,

स्याम रंग ह करि समान्यो स्याम-रंग मैं ॥१८४।।

आखर = अक्षर । जंबु = जामुन । औचक = एकाएक । कागर =काग़ज़ ।

मैं समुझायो नहीं समुझे मन को अपनो अपमानन सूझै मोहन मान करै तो गरे परि देव मनैबे को जाइ अरूझै; काको भयो सबसों बिगरो यह जाकोकमरे सु तौ बात न बूझै, सौति हमारी सोप्यारे की प्यारी ता प्यारेकेप्यार परोसी सोंजूझे।

नायिका नायक के विषय में उपालंभ प्रकट करती हुई अपने मन का वर्णन करती है। अरूझै = उलझै ।

  • जिसके वास्ते।