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देव-सुधा

सूधेहूँ नैन लखे न तबै अब पैए कहाँ जब चाहत हेरो, कान करे नहिं कान तबै तकि कान लगे अकुलान घनेरो; लजहि जाइ मिले उतए, इत मोहि मिले मग मेटत मेरोछ, मेटौं मनोरथ हौं इनको तौ मिटै मन मेरे मनोरथ तेरो।।१८६।।

कान करे इत्यादि-कान करे नहिं ( हे नेत्र, तब तुम सचेत या सजग नहीं हुए )।

कान तबै तकि ( तब कान्ह को देख करके ) कान लगे ( तुमने लाज की)।

कान लगे अकुलान-उस काल कुल-कानि में लगे हुए तुम अब व्याकुल होने लगे।

गोत-गुमान उनै इत प्रीति सुचादरि-सी आँखियान पै खैची, टूटै न कानि दुहू दुखदानि की देवजू हौं दुहु भोर ते ऐंची; सील लटो न हियो पलटो प्रगटी सुनिरंतर अंतर कैची, या मन मेरे अनेरे दलाल है हौं नंदलालके हाथ लैबैंची॥१८७

उधर कुल- मर्यादा का घमंड था, और इधर प्रेम ने आँखों पर चद्दर-सी तान दी,जिससे कुल श्रादि कुछ देख ही न पड़ते थे। इन दोनो दुखदायियों की मर्यादा नहीं टूटती थी, जिससे नायिका का चित्त दोनो ओर खिंचता था। न तो शील ( कुल-संबंधी महत्त्व ) न्यून हुआ, न (प्रेम-पूर्ण ) हृदय का ढंग पलटा, जिससे चित्त के अंदर सदैव स्थिर रहनेवाली कैंची-सी उत्पन्न हो गई (कैंची जब काटती है, तब उसमें दोनो ओर से एक दूसरी से प्रतिकूल शक्तियाँ काम करती हैं।), तो भी मेरे मन ने अन्यायी दलाल बनकर मुझे लेकर भगवान् के हाथ बेच दिया, अर्थात् उनके प्रेमके वश कर दिया।

  • उस काल ये नेत्र उधर लज्जा को मिल गए, तथा इधर मुझसे

मिलकर मेरा (सु) मार्ग मेट रहे हैं।