पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१३८

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देव-सुधा लौटि-लौटि परति करौंट खट-पाटी लै-लै, सूखे जल सफरी-ज्यों सेज पै फरफराति॥१६॥ बरफ = ठंडी प्रोस । सराप ( शाप )= दुर्वचन । ससकी 3 रवासोच्छ्वास । सफरी- मछली। जागी न जोन्हाई लागो भागि है मनोभव की, लोक तीनो हियो हेरि-हेर हहरत है; बारि पर परे जलजात जरि बरि-बरि, बारिधि ते बाड़व - अनल पसरत है। धरनि ते लाइ झरि छुटी नभ जाइ, कहै । देव जाहि जोवत जगत हू जरत है; तारे चिनगारे - ऐसे चमकत चहूँ ओर, ___ बैरी बिधु - मंडल भभूको-सो बरत है॥२०॥ बाड़व-अनल (बाड़वानल)= समुद्र की प्राग। चाँदनी नहीं छिटकी है, वरन् कामदेव की आग लगी है, ( जिसके कारण से) तीनो लोकों को देख-देखकर हृदय घबराता है। तालाब के कमल विरहानल से जलकर पानी पर गिर पड़े (अर्थात् पानी में रहने पर भी वह उन्हें बचा न पका,क्योंकि स्वयं तप्त हो गया), अथच जल- जलकर समुद्र से बाड़वानल ागे फैलता है (अर्थात् समुद्र में नहीं समाता)। पृथ्वी से लाइ झरि ( अग्नि की झार )जाकर आकाश में छूटी, जिसे देखते ही सारा संसार भी जल रहा है ।। साँसन ही सों समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गया ढरि, तेजु गयो गुन ले अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि; ___सअग्नि अपने गुण ( नेत्रों से रूपों की ग्राण-शक्रि )को लेकर चली गई।