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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१४६

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देव-सुधा

रत्नावली—अलंकार है।

नायिका नायक (भगवान्) के विषय में प्रत्यक्ष उपालंभ प्रकट करती है। कवि ने भगवान् के दसो अवतारों का वर्णन इस छंद में किया है।

रावरे पाँयन ओट लसै पग गूजरी बार महावर ढारे,
सारी असावरी की झलकै छलकै छबि घाँघरे घूम घुमारे;
आयो जू आओ दुरावो न मोहूँ सों देवजू चंद दुरै न अँध्यारे,
देखौ हौ कौन-सी छैल छिपाई तिरीछे हँसै वह पीछे तिहारे।

नायिका नायक को अन्य रमणी से संबंध रखने का दोष लगाती हुई उसके विषय में उपालंभ प्रकट करती है। नायक के पीछे वास्तव में कोई स्त्री है नहीं, केवल उसे चौंधियाने को ऐसा कथन है।

ओट= पाड़। वह= अन्य रमणी से अभिप्राय है।

मोंहि तुम्हैं अंतरु गनैं न गुरजन, तुम
मेरे, हौं तुम्हारी पै तऊ न पिघलत हौ;
पूरि रहे या तन मैं, मन मैं न आवत हौ,
पंच पूँछि देखे कहूँ काहू ना हिलत हौ।
ऊँचे चढ़ि रोई, कोई देत न दिखाई देव,
गातनि की ओट बैठे बातन गिलत हौ;
ऐसे निरमोही सदा मोही मैं बसत, अरु
मोंही ते निकरि फेरि मोंही न मिलत हौ॥२१५॥

पंच= (१) लोग-बाग; (२) पंच ज्ञानैंद्रियाँ। गिलत हौ= पी जाते हो, अर्थात् प्रकट नहीं होने देते। ही= हृदरः।