पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१४५

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देव-सुधा १४१ कारे हो कान्ह निकारे हो कीलिरहेगुनलीलिपै औगुन थाहत, पन्नगाकीमनि कीन्हे तुम्हें, तुमपन्नगकी किचुली कियो चाहत। पूत-नाते-पुत्र के नाते से । वगाहत पैठ करके । कीलि ( कील- कर ) वह मंत्र, जिससे सर्प वश किया जाय । पै औगुन थाहत= किंतु अवगुणों की थाह लेते हो। माही में छिपे हौ मोहिंछवावत न छाँहौं, ताप - छाँह भए डोलत इते पै मोहिं छरिहौ; मच्छ सुनि कच्छप बराह नरसिंह सुनि, बावन परसुराम रावन के अरि हौ। देव बलदेव देव दानव न पावें भेव, को हौ जू कहौ जू जो हिये की पीर हरिहौ; कहत पुकारे प्रभु करुना - निधान कान्ह, कान मूदि बौध है कलंकी काहि करिहौ ।। २१३ ॥

  • हे कान्ह, तुम काले सर्प हो, और मंत्र द्वारा कीलकर (पर-वश

होकर ) निकाले गए हो, और गुण लील चुके हो, किंतु अवगुण की थाह लेते हो, अर्थात् बुरी बातों की सीमा तक पहुँचते हो । प्रयोजन यह है कि नायिका ने उन्हें सर्प के समान कीलकर अपने प्रयोजन से स्ववश किया, किंतु वह उसके वश में नहीं होते। + सर्प ।

  • हम तो तुम्हें सर्प की मणि के समान सिर पर धारण किए रहे

हैं, अर्थात् तुम्हारा अत्यंत सम्मान करते रहे हैं, किंतु तुम हम लोगों को सर्प की केंचुल की तरह समझते हो, अर्थात् हमको तुच्छ समझ करके छोड़ते हो।