पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
देव-सुधा
१६१
 
छाँड्यो सुख-भोग मान खाँड्यो गुरुलोगनि को,

माइयो हम योग या बियोग के भगल मैं ; चेली कै सहेली बन डोलति अकेली गहि , मेली भुज बेली और सेली है न गल मैं । देव पहिले ही पाइ फारि चितु फारयौ हितु, फारखती चाहैं कान्ह फार्मबो अगल मैं; नाथ सों सँदेसो सूधो आदेस कहै को ऊधो, अलख जगावै दाबैं कूबरी बगल मैं ॥२५३।। गोपियाँ अपनी विरक्त दशा का वर्णन उद्धव से करती हैं। खाँड्यो = खंडित किया । मान = प्रतिष्ठा । माड्यो = मंडित किया, सँवारा । भगल = छल । मेली = पहनी। ही हृदय । फारखती (फ़ारिग़ ख़ती)= लिखा-पढ़ी करके इलाहिदा होना। अलग = पृथक । श्रादेस = फ़क़ीरी आज्ञा । अलख = अदृष्ट, ईश्वर । फ़क़ीर लोग भिक्षा माँगते में अलख-अलख कहा करते हैं। जोगहि सिखैहैं ऊधौ जो गहि के हाथ हम , सो न मन हाथ ब्रजनाथ साथ कै चुकी ; ॐ देव कवि कहता है, हम गोपियों ने पहले ही भगवान् को चित्त फाड़कर पाकर अपना ( कुटुंबियों से ) प्रेम फाड़ डाला, किंत भगवान् हमसे फारखती चाहते हैं, जिस फारखती को हम पार्थक्य में फाड़ेंगी, अर्थात् फारखती को कायम न रक्खेंगी। ___ + छंद का प्रयोजन यह है कि हम गोपियाँ भी वियोग ही को प्रेम-पूर्ण योग मानती हैं, सो हमें अन्य यौगिक क्रियाओं की भाव- श्यकता नहीं । स्वयं भगवान बग़ल में कूबरी दाबकर अलख जगावें।