सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१६०
देव-सुधा
 


अरगजे भीजी मरगजे बागे बनी ठनी , ___ हाट पर बैठी अति ही सुघरपन सों; इंदु-से बदन मृगमद - बुंद बेंदी भाल , झलक कपोल गोल दूने दरपन सों। मैन - मद छाके नैन देव मुनि मोहैं सैन , सोहैं सटकारे बार कारे सरपन - सों ; बंधु किए मधुप मदंध किए बंधु जन , बँध्यो मन गंधी की सुगंध-झरपन सों ।। २६८ ॥ मृगमद = कस्तूरी । मैन मद = मयन अर्थात् काम के मद में । मरगजे = मले । सुघरपन = चतुराई । बंधु किए मधुप = भौरों को बंधु ( बंधुश्रा = कैदी ) किया । सुगंध के वश हो भौंरे वहीं ठहर गए । बागे = पहनने का कपड़ा। दूने दरपन सों = दर्पण से दूने चमकनेवाले। झरपन सों = झपटों से। सैन = आँखों का इशारा। दंपति एक ही सेज परे पग पींडुरी दाबि दुहूँ को रिझावति , आपने ओछे उठाहैं कठोर उरोजन को मलै ऍड़ी मिलावति ; भौं हैं उमेठि रहैं ठकुराइनि ठाकुर के उर काम जगावति , लौड़ी अनोखी लड़ाइते लाल की पाँय पलोटै कि चोटै चलावति । तिल है अमोल लोल - नैनी के कपोल गोल , बोलत अमोल जन बारि फेरियत है; सोभा सुने जाकी कबि देव कहै कौन को न होत चित चीकनो चतुर चैरियत है।