पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१७८

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१७४ देव-सुधा x अालोचकों के प्रति संतत मद हू तें अधिक पद को मद सरसाइ; बाहि पाइ * बौराइ, पै याहि पाइ + बोराइ । तो भी जे पद मद को छाकु छकि बोले अटपट बैन, ' सोऊ सुजन कृपा करें, भरै नेह सौं नैन । अंतिम प्रार्थना नेह - नेह दै जो दियौ साहित - दियौ जगाइ, सतत भरयौई राखियो, जगत जोति जगि जाइ। श्रीमान् का प्रेम-पूर्वक प्रदत्त यह प्रसिद्ध पुरस्कार प्राप्त करके मैं अपने को गौरवान्वित समझता और इसके लिये श्रीमान् को सादर धन्यवाद देता हूँ। किंतु श्रीमान् को विदित ही है कि मेरा तो सर्वस्व ही सरस्वती माता पर न्यौछावर है। फिर यह बानी देवी का प्रसाद तो खास तौर पर उन्हीं को समर्पण होना चाहिए। अतएव मैं आज इस पुरस्कार को भी सहर्ष एक ऐसी शुभ साहित्यिक सेवा में लगाने को उद्यत हूँ, जिसकी आवश्यकता का अनुभव सुदीर्घ समय से सभी सहृदय साहित्यिक सजन-कृतविद्य कवि-कोविद कर रहे होंगे। श्रीमान् का दिया हुआ यह धन मैं श्रीमान् के ही नाम से-वसंत- पंचमी के शुभ दिन को अगर करने के लिये-नवीन और प्राचीन

  • पाठांतर सेइ।

+ पाठांतर लेइ। + वसंत-पंचमी के ही दिन मेरा जन्म हुआ, मेरी प्यारी गंगा- पुस्तकमाला का और गंगा-फाइनार्ट-प्रेस का जन्म भी उसी दिन हुश्रा, तथा वसंत पंचमी को ही मैं उस स्वर्गीय श्रात्मा से भी एक किया गया था, जिसके नाम से मैं गंगा-पुस्तकमाला को गूंथ रहा हूँ ।