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देव-सुधा

पात्र मुख्य सिंगार को सुद्ध सुकीया नारि । प्रथम संग नवनेह के बरे* परे दिन चारि ।। २३ ।।

परकीया उपपति बिरह होति प्रेम-आधीन । पति संपति तन विपति मैं दोरि परै पनपीन ॥ २४ ॥

पर-रस चाहै परकिया तजै आपु गुन गोत । भाप औटि खोवा मिलै खात दूध फल होता ॥ २५॥

काची प्रीति कुचालि की बिना नेह रस रीति । मार रंग मारू मही$ बारू की-सी भीति ॥ २६ ॥

मुग्धादिक बयभेद अरु मान सुरत सुरतंत । वरने मत साहित्य के उत्तम कहो न संत ।। २७ ।।

रसनि-सार सिंगार-रस, प्रेम-सार सिंगार। बिना प्रेम दंपति विपति संपति सुख दुख-भार ॥२८॥

सरस भाव उर अंकुरित फूलि फलै सुख-कंद । सुपन, दरस, सुमिरन, परस, बरसत रस-मानंद ।। २६ ॥ -------- -

विवाह हुए।
 

+ खोया को पानी में घोलकर और प्रौटाकर जो दूध बनाया जाता है, वह कृत्रिम, हानिकर और कुस्वादु होता है । असली दूध नाभकर, सुस्वादु और पौष्टिक होता है। स्वकीया और परकीया की प्रीति में भी इसी प्रकार असली और नकली दूध का भेद है।

  • रंग का मरना; चौपड़ में चार नरदें रंग की, चार बदरंग की होती हैं । रंग की नरद मरने से विशेष हानि होती है।

$ मारनेवाली मही = दलदल ।