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देव-सुधा
(१)
वंदना
राखी न कलप तीनो काल बिकलप मेटि, कीनो संकलप, पै न दोनो जाचकनि जोखि ;
नाग, नर, देव महिमा गनत नंदजू की, माँगन जु आयो, सो न आँगन ते गयो रोखि।
दए सब सुख, गए बंदी न बिमुख देव- पितर अनंदी भए नंदीमुख-मख पोखि;
घरनि - घरनि सुर-घरनि सराहैं सबै धरनि मैं धन्य नँदघरनि तिहारी कोखि ॥१॥
कलप (सं० कल्पन = उद्भावना करना [दुःख की ]) = विलाप करना, बिलखना । विकलप (विकल्प ) = संदेह, भ्रांति । जोखि =तौल करके, परिमाण करके। रोखि (रोषि) = रुष्ट होकर, अप्रसन्न होकर । नंदीमुख (नांदीमुख)= श्राद्ध-विशेष, जो पुत्र-जन्म क उत्सव में किया जाता है। मख = यज्ञ । नँदघरनी = नंद की पत्नी अर्थात् यशोदा।
पायन नूपुर मंजु क्जें, कटि किंकिनि मैं धुनि की मधुराई, साँवरे अंग. लसै पट पोत, हिये हुलसै बनमाज सुहाई; .