पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२
देव-सुधा


केतिक विरंच्यो महा सुखन को संच्यो जहाँ, बच्यो ब्रज भूप सोई परब्रह्म भूप है।

सोई सुनि सुनि अवगधा अब राधा-जस जानत न देव कोई कहा धौं अनूप है;

तेज है कि तप है कि मील है कि संपति है, राग है कि रंग है कि रस है कि रूप है ॥ ७ ॥

राधा के यश का वर्णन तथा उनकी आराधना है। बिरंच्यो = विशेष करके रंच ( न्यून ) किया। संच्यो = समूह । अवराधा = आराधना ( पूजा) की।

चतुर्थ चरण राधा के यश के विशेषणों से भरा है। भूलि हूँ कढ़े जो कटु बोज, तो कढ़ाऊँ जीभ,

छार डागै आँखिन की आँसू झलकनि पैछ; 'कौन कहै कैसी सौति सो तौ ठकुरायनि लिखी,

हे ब्रज - बालन के भाल फलकनि पै । है रहौं नजीकी पै न जो की दुचिताई गहौं,

पीकी प्रानप्यारी लहौं नीकी ललकनि पैx;

  • यदि जीभ से भूलकर भी दुर्वचन निकलें, तो उसे निकलवा लँ,और यदि आँख में आँसू झलक जाय, तो उस पर भी धूल डाल दूं । प्रयोजन यह कि सौति द्वारा निरादर सहकर भी क्षोभ न करूँ।

$जब ब्रह्मा ने मस्तक पर ही सौति का होना लिख दिया है, तब वह कैसी है, इसकी चर्चा कौन चलावे?

x सौति का श्रादर देखते हुए निकट रहकर भी मन उद्विग्न न करूँ, अथच ज्येष्ठा सपत्नी को चित्त की उमंगों से भेदूं।