पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/२८

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देव-सुधा

जीवत तौ व्रत भूख सुखौत समीर महा सुररूखक हरे को, ऐसी असाधु असाधुन की बुधि साधन देत सराध मरे को॥१०॥ को तप के सुरराज भयो, जमराज को बंधनु कौने खुलायो, मेरुमही मैं सही करि कै गथ ढेरु कुबेरु का कौने तुलायो ; पापु न पुन्य न नर्क न सर्गमरो सुमरो फिरि कौने बुलायो, गूह ही बेद पुराननि बाँचि लबारनि लोग भले भुरकायो॥११॥

परपक्ष-निरूपण।

श्रृंगार
 

दव सुन्यो सब नाटक चाटक चाट उचाटन मंत्र अतंक को , पै नरुनी त्रिय के दृग-कोर ते और नहीं चित-चोर चमक को ; घटोट कोअाधिक चोट को सूलसम्हारै कोमूल कलंक को, बीछी छुवै किन छीछीबिसौ वहतौ बिसुबिस्व बसीकरबंक को।

चाटक = चेटक = जादू । चाट = चाह, वशीकरण ।

  • कल्पद्रुम । पर-पक्ष-निरूपण ।

+सब नाटक, चाटक, चाट, उच्चाटन (चित्त को हुमसा देना ) आदि के मंत्रों के आतंक (भारी प्रभाव ) को तो सुना, किंतु चित्तचुरानेवाली तथा उसे चकित करने को तरुणी स्त्री की चखकोर से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं देखी। . + घू घुट की आड़ से स्त्री के नेत्र की पूरी चोट को कौन कहे, उसकी आधी चोट की पीड़ा कलंक का मूल होने पर भी कौन संभाल सकता है ?

$ बीछी भले ही छुवै ( डंक मारै ), विष भी उसके सामने छीछी(तिरस्कृत ) है, क्योंकि उस बक ( तिरछी चितवनवाली ) स्त्री का विष संसार को वश करनेवाला है।