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देव-सुधा

जाके न काम न क्रोध बिरोध न लोभ छुवै नहिं छोभको छाहौ, मोह न जाहिर है जग-बाहिर, मोल जवाहिर तो अति चाहो; बानी पुनीत ज्यौं देवधुनी रस पारद मारद के गुन गाहौ, सील-ससी, सबिता-छविता, कबिताहि रचै, कवि ताहि सराहौ।

छाहौ-छाहँ भी । जग-बाहिर = जो लोकोत्तर हो।

कवि का उच्च कर्तव्य वर्णित किया गया है।

सारद के गुन गाहौ = सरस्वती के गुणों का अवगाहन करो (अर्थात् कवि में ये गुण खोजो)। प्रयोजन यह है कि कविमें शारदा के गुण होने चाहिए।

जानिए न जात पहिचानिए न आवत, बिती त्यो दिन-गति पै न त्यो परिजातु है।

जगत प्रवाह पथ अकथ अथाई देव, दया के निबाह कहूँ कोई तरि जातु है।

केते अभिमानी भए पानी के बलूला, कोई बानी बीजु धरम धरा प धरि जातु है;

सबद रसायनि के अाथ उपायनि, अमर तरु कायनि अमर करि जातु है ॥१४॥

कवि-माहात्म्य का वर्णन है। निबाह = निर्वाह। सबद = शब्द। बलूला = बुल्ला।

  • गंगा।

$आई, गीला, भीगा।