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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/३६

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देव-सुधा

नीर भरी निचरै अलकै छुटि के छलके मनों माँग ते मोती, बिज्जुलि-से झलक लपटे कन कजल-से अँग उज्जल धोती छ।।२६।।

नायिका के स्नान (प्रातःकाल के स्नान ) का वर्णन है। यह छंद जाति-विलास का है, और ब्राह्मणी के विषय में कहा गया है। कालिय काल महा विष ब्याल जहाँ जल ज्वाल जरै रजनी दिनु, ऊरध के अध के उबरै नहिं, जाकी बयारि बरै तरु ज्योतिनुः तां फनि को फन-फाँसिनु पै फदि जाइ फंसे उकसे न कहूँ छिनु, हाब्रजनाथ ! सनाथ करो हम होती हैं नाथ अनाथ तुम्हें बिनु ।।२७

कालिय-मर्दन का वर्णन है । ऊरध के = ऊपर के ( पक्षी आदि)। अंध के = नीचे के ( जलचर ) । उबरै = बचै । उकस्यौ न = निकला नहीं। फन-फाँसिनु पै = फन के फंदों पर।

मोर को मुकुट कटि पीत पटु कस्यो, कैसी केसावलि ऊपर बदन सादिंदु के,

सुंदर कपोलन पै कुंडल हलत, सुर मुरली मधुर मिले हाँसी रस बिंदु के ।

माँगती सुहागु नाग-सुदरी सराहि भागु, जोरे कर सरन चान अरबिंदु के;

किंकिनी रटनि ताल ताननि तननि देव, नाचत गुबिंदु फन फननि फनिंदु के ॥ २८ ॥

केसावलि = केश-समूह । तननि = विस्तार, खिंचाव ।

ॐ उज्ज्वल धोती से ढके हुए कुछ-कुछ खुले अंग जो नेत्र धुलने से काजल के कणों से लिपटे हुए हैं, वे बिजली की भाँति चमक रहे हैं।