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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/४७

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देव-सुधा


साँचे देव दीनबंधु दीनता न राखी कहूँ, आदर* उदार वसु बादर के वारि कै ;

मंदोदरी दरी में दुरयो है दौरि दारिद, निकारि दियो उदर दुरोदर को फारि को ।। ४६ ॥

(५)
प्रकृति-निरीक्षण

छपद छबीले छीव पीवत सदीव रस , लंपट निपट प्रीति कपट ढरे परत ;

भंग भए मध्य अंग डुलत खुत्तत साँस , मृदुल चरन चारु धरनि धरे परत ।

देव मधुकर दूक दूकत मधूक धोखे, माधवी मधुर मधु लालच लरे परत ;

दुहु पर जैसे जलरुहु परसत, इहाँ मुहु पर झाई परे पुहुप मरे परत ।। ४७ ।।

यहाँ नायक से बहुत-सी नायिकाओं पर पृथक्-पृथक् प्रीति रखने का उपालंभ वर्णित है । छीव = उन्मत्त । पहले चरण में भ्रमर-रूपी नायक की कपट-भरी झूठी प्रीति का कथन है । दूसरे चरण में उसकी शारीरिक दशा का कथन आया है।

मधूक (महुवा) के धोखे से मधुकर ( मीठे नीबू ) पर

  • सत्कार, औदार्य तथा संपत्ति-रूपी बादलों के जल से।

+ दारिद ( दरिद्र ) दुरोदर के उदर को फारिकै निकारि दियो, दौरि ( दौड़कर ) मंदोदरी ( छोटे पेटवाली) दरी में ( उदररूपी गुफा में ) दुस्यो (छिपा ) है।