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देव-सुधा


पारावार पारद अपार दसौ दिसि बूड़ी, बिधु बरम्हंड उतरात बिधि बरतेछ ।

सारद:जुन्हाई जह्न पूरन सरूप धाई, जाई सुधा सिंधु नभ सेत गिरि बरते;

उमड़ो परतु जोति मंडल अखंड सुधा मंडल मही में इंदु-मंडल बिबरते ॥५६ ।।

परम नवीन विचार।

कातिक पून्यो कि राति ससी दिसि पूरब बर मैं जिय जान्यो, चित्तभ्रम्यो पुमनिंदु मनिंदु फनिंदु उठयो भ्रम ही सों भुजान्यो; देव कछू बिसवास नहीं, सोइ पुंज प्रकास अकास मैं तान्यो, रूप-सुधा अँखियान अँचै निहिचै मुख राधिका को पहिचान्यो।५७॥

  • उस प्रकाश में पारावार (समुद्र), पारा तथा अपार दसौ

दिशाएँ डूब गई, एवं चंद्रमा अथच ब्रह्मांड उसी में ब्रह्मा के वरदान से उतराते हैं । प्रयोजन यह है कि वह प्रकाश का पुंज अपार है।

+श्वेत गिरिवर के सुधा-सिंधु से उत्पन्न जल की शारदी जुन्हाई ( गंगाजी को शरद् की ज्योत्स्ना कहा गया है ) पूर्ण रूप से धाई। प्रयोजन यह है कि गंगा-रूपी ज्योत्स्ना भी उसी प्रकाश पुंज से निकली है, जिस प्रकाश का अंश श्वेत गिरि पर सुधा-सरोवर के रूप में स्थित है।

$कवि ने इस छंद में यह विचार लिखा है कि संसार में प्रकाश पुंज सर्वत्र व्याप्त है, किंतु आकाश-रूपी पर्दा उसे पृथ्वी पर श्राने नहीं देता । उसी पर्दे में चंद्रमा एक छिद्र है, जिसमें से होकर वह प्रकाश पुंज सुधा-मंडल के समान पृथ्वी पर उमड़ा पड़ता है।

पाठांतर--"शारद जुन्हाई जह्व जाई धार सहसहु ।"