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पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/६०

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देव-सुधा
५६

अंबर बिराजै बर, अंबरन छाए छिति, पीरे, हरे, लाल, ये जवाहिर बिछाए हैं ॥६६॥ वर्षा में प्रकृति-वर्णन।

बनक = एक प्रकार का कपड़ा, जिसे साटन कहते हैं । उलहि =उग पाए । अंबरन = मेघ । वर्षा का सादृश्य विजयी मैन-महीप से दिखलाया गया है ।

आजु अभै सुघरी उघरी भ्रमकाज-निमित्त सुचित्त चलाकिन , चाहत नाह चलो पर देम को नाहक नाह कहो अबला किन है, देव सरोग उठी सगुनै कहि कामिनि दाभिनि सोन-सलाकिन झम रही बनमालिनि$भूपिघूमरहीघन-माल बलाकिना।६७।।

सोंखे सिंधु सिंधुर से बंधुर ज्यों विध्य, गंध- मादन के बंधु से गरज गुरवानि

  • बाहर चलने का विचार ही भ्रम-काज है। उसके लिये पति

का चित्त भले ही चला, किंतु वर्षा श्रा जाने से अच्छी घरी उघर आई, और गमन रुक गया।

+ पति परदेश को चलना चाहता है, उससे अबला ( नायिका) हे नाथ ! यह नाहक है, ऐसा भले ही कहे ( पत्नी के मना करने पर भी पति परदेश जाना चाहता था, तब तक वर्षा के उमड़ आने से अच्छी घड़ी आ गई)।

  • सोन-सलाकिन ( स्वर्ण की-सी शलाका) दामिनि (बिजली)

को सगुन कहकर सरोग कामिनी (वियोग के भय से रोग-पीड़िता नायिका) उठी ( रोग-शय्या से आराम होकर उठ खड़ी हुई)। बनमालवाली नायिका ( वह नायिका, जो वन के फूलों की माल पहने है)।