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देव-सुधा
५८


अंचल की फहरानि हिए रहि जानि पयोधर पीन तटी की, किंकिनि की झननानिझुनावनि,मूकन सों कि जानि कटी की ।

लाल पटी = लाल रंग का कपड़ा । पीन तटी = पुष्ट किनारेदार । झूलनिहारी अनोखी नई उनई रहती इत ही रँगराती, मेह मैं ल्यावसु तैमियै संग की रंग-भरी चुनरी चुचुवाती । झूला चढ़े हरि साथ हहा करि देव झुनावति ही ते डरातीt, भोर हिंडोरे को डोरिन छाँड़ि खरे ससवाह गरे लपटाती॥७१॥

ससवाइ = सीत्कार करके, डरकर ।

(११)
वसंत और फाग

आइ बसंत लग्यो बर सावन नैनन ते सरिता उमहै ग, कौ लगि जीव छमावै छपा मैं छपाकर की छबि छाई रहै री; चंदन सों छिरके छतिया अति आगि उठे उर कौन सहै री , सीतल, मद सुगंध समीर बहै, दिन दूगुनी देह दहै री ॥७॥

उमहै री = उमगती है। छमावै = सहन करावै । छिरके = सींचें । बर सावन = श्रेष्ठ श्रावण । वसंत श्राकर अच्छा सावन लग गया, अर्थात् वसंत मानो सावन हो गया।

(हे सखि ?) वसंत-ऋतु आते ही नैनों से ऐसा जल-प्रवाह हो चला है, मानो वह सावन है , और वह प्रवाह नदी होकर उमड़ता है।

केकी-कुल कोकिल अला कल कंठ धुनि , कोलाहल होत सुकपोत मयमंत को;

  • चूनरि मेघ के कारण टपकती है, क्योंकि पानी बरस चुका है।

+ मुलाती है, किंतु हृदय से डरती भी है।