पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/६७

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देव-सुधा
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चूल्हे चढ़े छाँड़े उफनात दूध-भाँड़े, उन __ पूत छांड़े अंक पति छाड़े परजंक मैं ।। ८२ ॥ श्रातुर = जल्दी में, अधीर । अतंक ( अातंक ) = प्रताप, रोब । लंकनि = कटिवाली। निर्जन वन में होती हुई, चरण-कमलों से कीचड़ मँझाती हुई रात में दौड़कर गई। प्रतिकूल बिधि बंक मैं = टेढ़ी एवं उलटी रीति से। इस छंद में विलास तथा विभ्रम हावों की अच्छी बहार है। विभ्रम में उलटे भूषणादि का विषय होता है, और विलास हाव में गमनादि में विशेषता। गोकुल नरिंद्र इंद्रजाल सो जुटाय ब्रज- बालनि लुटाय के छुटाय लाज-दामु सों ; बिज्जुलि-से बास अंग उज्जल अकास करि बिबिध बिलास रस हास अभिरामु सोंके । जान्यो नहीं जात, पञ्चिान्योन बिलात, रास- मंडल ते स्याम, भासमंडल ते घामु सो; ॐ सुरद रस और हँसी के साथ अनेक प्रकार के खेल करके बिजली के समान कपड़े और उजले आकाश-सा शरीर करके । प्रयोजन यह है कि भगवान् सवस्त्र ग़ायब हो गए । वसन बिजली- से बिला गए, तथा शरीर उजला आकाश-सा हो गया, अर्थात् सब कहीं है, और पकड़ा न जा सकने से कहीं भी नहीं। भगवान् ने अनेक रूप रखकर रास रचा था । वे सब रूप आकाशवत् हो गए, अर्थात् सब कहीं होकर भी कहीं न रहे। उजले आकाश कहने का यह अभिप्राय है कि उसमें घनादि की अोट भी न थी। इसी प्रकार भगवान खुले में ग़ायब हो गए।