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देव-सुधा
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भरिबी = पूरा करूँगी, वितीत करूँगी । अंतक = यम । और = दूसरी ( सखियाँ)। बीर = हे सखी !

(१२)
रास

फंकि-फंकि कि मंत्र मुरली के मुख जंत्र कीन्हो प्रेम परतंत्र लोक लीक ते डुलाई है।

तजे पति मात तात गात न सँभारे कुल- बधू अधरात बन भूमिन भुलाई है।

नाथ्यो जो फनिंद इंद्रजालिक गोपाल गुन, गाडरू* सिंगार रूपकला अकुलाई है;

लीलि-लीलि लाज हग मीलि-मीलि काढी कान्ह, कीलि-कीलि ब्यालिनी-सी ग्वालिनी बुलाई है।।८१॥

कवि कृष्ण को इंद्रजाली बनाकर व्यालिनी-गोपियों का आकर्षिय हो पाना वर्णन करता है।

कीलि-कीलि = विवश कर-करके ।

घोर तरु नीजन बिपिन तरुनीजन है निकसीं निसंक निसि आतुर अतंक मैं ;

गन न कलंक मृदु - लंकनि मयंक • मुवी। पंकज-पगन धई भागि निसि पंक मैं।

भूषननि भूलि पैन्हे उलटे दुकूल देव , खुले भुजमूल प्रतिकूल बिधि बंक मैं ;

  • सर्प का पकड़नेवाला या उसका विष उतारनेवाला । ऐसे मंत्र में

गरूड़ की हाँक दी जाती है, इसी से उस मंत्र-विद्या का नाम गारुदि है।